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(दोहा)
बहन करो तुम शीलवश, निज जनको सब भार।
गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करौ सँभार॥-१॥
तुहरो शील-स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय।
तेहि सम कुञ्टिल-कुञ्बुद्धि जन, नहिं कुञ्भाग्य जन कोय॥-२॥
दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ ओघ अपार।
कृञ्पा-अनल प्रकटौ तुरत, करौ पाप सब छार॥-३॥
कृञ्पा-सुधा बरसाय पुनि, शीतल करौ पवित्र।
राखौ पदकमलनि सदा, हे कुञ्पात्रके मित्र !॥-४॥