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"पतझड़ी उमर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी" के अवतरणों में अंतर
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समय बहुत कम रहा पास में
लेकिन काम बहुत बाकी है।
पथ के साथी मेरे सारे
एक-एक कर छूट रहे हैं;
जगते रहे साथ जो तारे
एक-एक कर टूट रहे हैं।
अस्ताचल की ओर सूर्य, बस
पूनम का चंदा बाकी है।1।
लोक-चलन कहता है मुझसे
अब मैं ले लूँ कंठी-माला;
घूमूँ नंगे बदन, पहन कर
केवल पीला एक दुशाला।
पर मेरा मन पहने अब भी-
वस्त्र रेशमी है, खाकी।2।
अभी नहीं पतझड़ी उमर को
मैंने बिल्कुल ही माना है;
मेरे भीतर का बाना तो,
अभी बसंती ही बाना है।
मेरे पैरों में चलने की
शक्ति भरी धरती-माँ की है।3।
12.4.85