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छनो भर खातिर / लक्ष्मीकान्त मुकुल
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उनुका लगे ना रहे कौनो टाट के मड़ई आ फूंस-मूंजन के खोंता
ऊ चिरई ना रहन भा कौनो फेंड़-रूख हरवाहीं से लौटत ऊ एगो मजूर रहन
भसभसा के गिरेला जइसे पुअरा के छान्हि धमका भइला से ओही तरी लूढ़ेरा गइल रहन ऊ पोखरा के पिंड़ी पर
ओह ! छनो भर खातिर ऊखी में के लुकाइल दनवा-दूत बन के देले रहीत आपन बनूक कुछऊ बन गइल रहितन ऊ आन्ही-बुनी भा खर-पतवार तनीको देरि खातिर बुला हो गइल रहीत मुँहलुकान </poem>