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प्रथम अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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नचिकेता की अप्रतिम बुद्धि से, धर्मराज चकित हुए,
एक और वर देता हूँ प्रिय, मन मुदित कह हर्षित हुए।
अब तुम्हारे ही नाम से, यह अग्नि विद्या प्रसिद्ध हो,
जो रत्नमाल देवत्व सिद्धि को विविध रूपा सिद्ध हो॥ [ १६ ]

त्रय बार करते जो अनुष्ठान को, शास्त्र विधि से अग्नि का,
ऋक साम यजुः के तत्व ज्ञान व दान यज्ञ विधान का।
निष्काम भाव से चयन करते वे ही, पाते शान्ति को,
जन्म मृत्यु विहीन होकर, शेष करते भ्रांति को॥ [ १७ ]

अग्नि चयन विधि ईंटों की, संख्या स्वरूप को जानते,
नाचिकेतम अग्नि विद्या के मर्म को पहचानते।
तीन बार के अनुष्ठान से ही, जन्म मृत्यु के पाश से,
रहित होकर स्वर्ग का पाते हैं सुख विश्वास से॥ [ १८ ]

नाचिकेत को यह अग्नि विद्या, स्वर्ग दायिनी ज्ञात्त हो,
जिसे दूसरे वर से तुम्ही ने माँगा था विज्ञात हो।
यह अग्नि विद्या अब तुम्हारे नाम से ही विज्ञ हो,
नचिकेता अब तुम तीसरा वर मांग लो दृढ़ प्रग्य हो॥ [ १९ ]

उपरांत मृत्यु के आत्मा अस्तित्व में है या नहीं
अव्यक्त अब तक तथ्य यह, इस विषय में एक मत नहीं।
उपदिष्ट आपसे मर्म इसका, धर्मराज मैं जान लूँ
तीनों वरों में तीसरा वर , आपसे मैं मांग लूँ॥ [ २० ]

आत्म तत्व का विषय नचिकेता बहुत ही सूक्ष्म है,
सहज ग्राह्य न देवों से बी, ज्ञात अतिशय न्यून है।
यद्यपि प्रतिज्ञ हूँ ऋणी हूँ, पर दूसरा वर मांग लो,
देवों से भी अविदित मर्म है, गूढ़ है, यह जान लो॥ [ २१ ]

देवों से भी अज्ञेय यदि और विषय इतना गूढ़ है,
फिर आपसा ज्ञाता कहाँ मैं पाउँगा, जग मूढ़ है।
मैं गूढ़ता से हार, वर कोई अन्य लूँ , यह कथन है ,
इस वर के संम नहीं अन्य वर, कृपया कहें पुनि नमन है॥ [ २२ ]

नचिकेता प्रिय इस वर को लेकर क्या करोगे मान लो ,
सुत, पौत्र, गौएँ, स्वर्ण, गज, साम्राज्य, अश्व को मांग लो।
तुम आयु इच्छित भोगने की चाहना हो तो कहो,
सब सुलभ, दुर्लभ आत्म तत्व है, बस इसी को मत कहो॥ [ २३ ]

धन राज्य वैभव दीर्घ जीवन, यदि तुम्हारी दृष्टि में,
वर आत्म विषयक सम यदि हैं, मांग लो सब सृष्टि में।
इस विश्व के विश्वानि वैभव, दासवत, हो जायेंगे,
इच्छित युगों तक जियो, भोगो शेष न हो पायेगे॥ [ २४ ]

भू लोक में जो भोग दुर्लभ, सुलभ सब कर दूँ अभी,
रमणियां दुर्लभ, सहज सेवा समर्पित हों सभी।
नचिकेता प्रिय विश्वानि वैभव, सब तुम्हारे ही लिए
पर मृत्यु बाद की आत्मा का मर्म मत पूछो प्रिये॥ [ २५ ]

नाशवान हैं पौत्र, सुत, गौ, अश्व, गज, साम्राज्य भी,
सब मरण धर्मा प्राण, आयु, अप्सरा, रथ, राज्य भी।
बहु प्रेय श्रेय सभी चुकेगे, क्षणिक इस संसार में,
है शक्य कल होंगी नहीं, क्यों सार खोजूँ असार में॥ [ २६ ]

धन से हुआ कब तृप्त मानव, अर्थ के क्या अर्थ हैं,
अगणित प्रलोभन आपके , मेरे लिए सब व्यर्थ हैं।
शुभ दृष्टि से तो आपकी, धन आयु स्वयं यथेष्ट हैं, इस विषय
अब आत्म ज्ञान का तीसरा, वर ही मुझे तो श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]

सब जानते हैं, सुविज्ञ मानव, मरण धर्मा प्राण हैं,
जग नारी के सौन्दर्य सुख, धन भोग से कब त्राण है।
छोड़ आपको रमे इनमें, कौन ऐसा मूढ़ है,
मृत्यु हीन हे धर्मराज ! ही आप दुर्लभ गूढ़ हैं॥ [ २८ ]

मरणोपरांत की आत्मा अस्तित्व में है या नहीं,
इस विषय का ज्ञातव्य ज्ञान, कहें प्रभो! इच्छा यही।
वर आत्म ज्ञान का गूढ़, सत्य है, पर यही वर चाहिए,
सब प्रलोभन व्यर्थ मुझको , आत्म ज्ञान ही चाहिए॥ [ २९ ]