भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं / प्रताप सहगल

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:19, 14 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप सहगल |अनुवादक= |संग्रह=अंध...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं वह इक पेड़ हूं
जंगल में कहीं अंखुवाया, फूटा
मैं वह इक पेड़ हूं
जिसे शहर ने पानी डाला
बढ़ता ही रहा टूटा, टूटा
मैं वह इक पेड़ हूं
जिसे खाद मिली जैसे-तैसे
माली भी रहा करता
कभी कतरन
रहा भरता कभी धड़कन
हवा जो भी मिली
सब जैसी मिली
फिर फूल खिले
छाया भी रही
मजबूरी-सी
क्या वजह हुई
पेड़ फलदार न हुआ
मैं वह इक पेड़ हूं
जो आज तलक
नहीं हुआ फलदार।