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रामप्रेम ही सार है / तुलसीदास/ पृष्ठ 6

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रामप्रेम ही सार है-6

 (47)

को भरिहै हरिके रितएँ रितवै पुनि को , हरि जौं भरिहैं ।
 उथपै तेहि केा , जेहिं रामु थपै, थपिहैं तेहि केा , हरि जौं टरिहैं।।

तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहिं कालहु तें डरिहैं।।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै।।

(48)

ब्याल कराल, महाबिष , पावक मत्तगयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर , ते करनी मुख मोरे।।

नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे।।