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सदल सलषन हैं कुसल कृपालु कोसल राउ!
सील-सदन सनेह-सागर सहज सरल सुभाउ ||
नीन्द-भूख न देवरहि, परिहरेको पछिताउ |
धीरधुर रघुबीरको नहि सपनेहू चित चाउ ||
सोधु बिनु, अनुरोध रितुके, बोध बिहित उपाउ |
करत हैं सोइ समय साधन, फलति बनत बनाउ ||
पठए कपि दिसि दसहु, जे प्रभुकाज कुटिल न काउ |
बोलि लियो हनुमान करि सनमान, जानि समाउ ||
दई हौं सङ्केत कहि, कुसलात सियहि सुनाउ |
देखि दुर्ग, बिसेषि जानकि, जानि रिपु-गति आउ ||
कियो सीय-प्रबोध मुँदरी, दियो कपिहि लखाउ |
पाइ अवसर, नाइ सिर तुलसीस-गुनगन गाउ ||