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साहिबे-बज़्म ने न पहचाना / सुरेश सलिल

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साहिबे-बज़्म ने न पहचाना

कैसे मुमकिन हो यहाँ रह पाना


ज़िंदगानी मिरी रेहन रक्खी

और वो मांगते हैं नज़्राना


हुरुफ़-ए-इश्क़ तीन ही तो हैं

मुझपे भारी हैं मगर कह पाना


(रचनाकाल : 2003)