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आत्म-बोध / भाग 2 / मृदुल कीर्ति

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जाति,वर्ण,आश्रम,रंग-रूपा, भेद विभेद विभिन्न सरूपा,
आत्म लीन हुइ जेहि पल जोया, रंग, गंध जस, तस ही तोया॥११॥

पञ्च तत्व मय जीव शरीरा, जनमत प्रारब्धन जंजीरा.
सुख-दुःख भोगन देह निमित्ता, भोग, भोग हित दैहिक सत्ता॥१२॥

पञ्च प्राण, मन ,बुद्धि समन्वय, दसों इन्द्रियां , सूक्ष्म देह लय.
सूक्ष्म देह की इनसे सत्ता, भाव ज्ञान, अनुभूति इयत्ता॥१३॥

आत्म-ज्ञान बिनु जनमत देहा, पुनरपि जनम-मरण पुनि देहा.
कारण देहा, कारण मूला, अथ अज्ञान ही मूल समूला॥१४॥

रंग विहीन स्फटिक जैसे, जस हो रंग दिखत है वैसे
तस ही शुद्ध आतमा बिम्बित, जस हों पञ्च कोष प्रतिबिंबित॥१५॥

आत्म स्वरुप शुद्ध अन्वेषा, भ्रमित आवरण पाँचों कोषा,
विलग धन भूसा सम जोई, तत्व ज्ञान पावत जन सोई॥१६॥

व्यापक सर्व आतमा यद्यपि, प्रतिबिंबित नहीं एक समान अपि.
अन्तर्निहित ज्ञान उद्भासित, स्वच्छ धरातल जस प्रतिबिंबित ॥१७॥

इन्द्रिय देह,बुद्धि, मन प्रकृति, भाव- साक्षी अति उत्तम प्रवृति ,
जस नृप होत मात्र संचालक, आत्म तत्व तस आत्म-नियामक॥१८॥

यद्यपि बादल चलत अकासा, चालत चन्द्रमा, अस आभासा.
इन्द्रिन यथा, आत्मवत जाने, अज्ञानी अथ तत्व न जाने॥१९॥

इन्द्रिन तन-मन करम अपारा, आत्म-चेतना मूल अधारा,
जस जन निर्भर रवि उजियारा, करम करत रवि ज्योति पसारा॥२०॥