भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दश्त में बैठ के घर देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:58, 23 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='महताब' हैदर नक़वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> दश्त ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
दश्त में बैठ के घर देखते हैं
हम भी अब अपना हुनर देखते हैं
देखने के लिये दुनिया है बहुत
हम अभी तुझको मगर देखते हैं
एक-एक रोज़ करते हैं हिसाब
एक-एक शब की सहर देखते हैं
बैठे बैठे ही कटी जाती है उम्र
सफ़र-ओ-रख़्त-ए-सफ़र देखते हैं
तेरे मंज़र तो वही हैं सारे
फिर भी हम बार-ए-दिगर देखते हैं
देखना है तो उसी को देखें
क्यों इधर और उधर देखते हैं