भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:48, 17 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार |अनुवादक= |स...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दा‌उ‌ए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन॥
भ‌ई विकल, छायौ बिषाद मुख, सिथिल भ‌ए सब अंग सु-सोभन।
उर-रस जर्‌यौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन॥
लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन।
बानी रुकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन॥
भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन॥