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मग जोहति मन व्यथित भामिनी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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मग जोहति मन व्यथित भामिनी!
प्रियतम अजहुँ कुंज नहिं आये, बीति रही मधुमयी जामिनी॥
छटपटात अति प्रान मिलन कौं, चंद-बदनि सौंदर्य-धामिनी।
प्रेममयी प्रानेश्वरि राधा, साधारण नहिं जगत-कामिनी॥
हाय! हाय! क्योंप्रिय नहिं आये, विलखि विसूरति हृदय-स्वामिनी।
छायौ अति विषाद उर अंतर मति भइ संतत सोक-गामिनी॥