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शकुन्तला / अध्याय 17 / भाग 1 / दामोदर लालदास

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प्रिय पाकशासन उतरि सिंहासन-उपरसँ स्नेहमे।
मुसकैत धन्य कहैत गर मिलबैत सादर गेहमे।।
कयलनि ‘बिदा छितिपाल श्री दुष्यन्तकें अति प्रीतिसँ
चललाह रथ चढि़ राजधानी भूप पूर्वहि रीतिसँ।

प्रिय मातलि सारथि महपट् सँग बात करैत से।
सुरराज कृत स्वाग-प्रशंसासँ विनोद भरैत से।।
बजलाय बसुधाधीश मातलिसै-मिलन सम्बन्धमे।
‘स्वागत शचीपति कयल ले वर्णन न हो आनन्दमे।।

तद्योग्य हमहीं कय न सकलहुं सुरपतिक उपकार हा!
तकेरे बहुत अछि खेद! न सेवे न किछु सत्कार हा।।
सुरमण्डलीक समक्ष अर्द्ध सिंहासनहि बैसायकें।
हरिचानने-सिंचित गरक फुल-माल्य मोहि पहिरायकें।।

जेहि माल्य लै लालच-भरल छल दृष्टि अपनहि लालके।
से माल्य हमरह् देल सुरपति त्यागि लालच बालके।।
मातलि कहल-‘अपनहिक सन देवेन्द्रहुक सँकोच अछि।
किछ भेल नहि अपनेक शुभ सत्कार, तकरे शोच अछि।।

अपने दुहुक पारस्परिक लघुता न कम सम्मान्य अछि।
अपनेक शौर्य यशो महा सुरलोकमे अति मान्य अछि।।
देखू सुनू सुरवृन्द लिखि अपनेक कीर्तिक गीत कें।
सानन्द रहला गाबि रणमे वीरतामय जीतकें।।

‘मातलि, किहु कनि आब-हमजा रहलछी पथ कोनमे?
परिचय पथक सभ दैत चलु, अछि लालसा बड़ मोनसे।।
उत्तर कहल मातलि-प्रभो! परिवह-पवन-पथ थीक ई।
एहीं पथें आकाश-गंगा बहय सुर अवनीक ई।।’

भूपति कहल-‘बुझि पड़य मेधक-पथहिं रथ उतरैत अछि।
कारण रथक सभ चक्र किछ तीतल जकां झलकैत अछि।।
एही पथें जनु भ्रमय चलि गिरि वा उमडि़ कादम्बिनी।
रमणीय की लागय घटा-घन बीच दमकतिद दामिनी।।

‘राजन्’ बुझल अपने सही, मेघेक पथ एकरा कही।
सभ तक्र जाननिहार छी! मेघेक हमहूं पथ गही।।
मातलि कहल-‘निरखु प्रभो, कनि आब भूलोकक छटा।
ऊपर उठति सन बुझि पड़य धरतीक की छविमय घटा।।

आकाश परसँ जे नदी धरतीक रेखाकार सन।
से आब कनि-कनि बुझि पड़य क्षण-क्षण हिंमे विस्तार सन।।
जे वृक्ष नव व्रतति-लता सन छोट क्षीण लगैत छल।
से सभ बुझाइछ आब कनि कनि आर विशाल भल।।

गतिमान दिव्य विमान ई नोचा उतरि किछु गेल अछि।
दर्शन मनोज्ञ वसुन्धरा-सौन्दर्य सुखकर भेल अछि।।
मातलि! कहू कनि आब-सन्ध्या कालहिक धन-माल सन।
उच्चातिउच्च मनोज्ञ ई अछि कोन शैल विशाल सन।।

बाजल रथी-‘राजन’! सुनू ई हेमकूट पहाड़ अछि।
किन्नर गणक आवास आ तप-साधना-आधार अछि।।
कश्यप-अदिति दम्पति एतहि छथि तप-निरत चिरकालसें।
पावन परम गिरिपर तपोवन शान्त विध्नक जालसें।।

‘मातलि! उतारू रथ एतहि, सौभाग्य-अवसर ऐल अछि।
कश्यप-अदिति-दर्शन करी, आशीष-आशा कैल अछि।।
लखु, बाहरहुँ‘स’ की मनोरम ई तपस्या-शैल अछि।
सभ श्रान्ति-क्लान्ति हंटाय मानस-शान्तिहिंक क्षण ऐल अछि।।

मातलि! सुरथ-सत्र्चालनक अहिं छी विशिष्ट कला-धनी।
हांकल तेना रथ, डोलि धरि सकले न तन हमरो कनी।।
ने चक्र ने रथ घर्घरायल, तीव्र गति-रफ्तारपर।
घूरो न कनिओ उड़ल! आ रथ आबि गेल पहाड़पर।।