भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मेला / शरद कोकास

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:03, 1 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शरद कोकास |अनुवादक= |संग्रह=हमसे त...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक


कोई बच्चा नहीं भटका मेले में
कोई धूल में नहीं लिपटा
कोई नहीं भागा छुड़ाकर हाथ

सबके सब
लौट गए घर
रात से पहले
सो गए माँ की गोद में

प्यार भटकता रहा बस
दुनिया के मेले में।

दो

मेले की भीड़
सचमुच की भीड़ होती है
ढूँढ़ती है अपनी खुशियाँ
अपनी अपनी दुकानों में
अपनी उमंगे अपना उल्लास ढूँढ़ती है
मेले की भीड़
पूरी ताक़त के सथ सिद्ध करती है
दुनिया में खुशी की अहमियत।

तीन

मेले में
यार मिले रिश्तेदार मिले
समय खत्म होते ही
लौट गए

किसी ने नहीं टटोले तुम्हारे जख़्म
किसी ने याद नहीं किया

किसी ने नहीं देखा
वीरानी पर
किस तरह पसरती है ऊब।

चार

अकेलेपन पर
तरस खाकर
ज़िन्दगी ने सौंप दी है
उस पर ज़िम्मेदारी
मेला लगाने की।

-1995