भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घर से मंदिर में रोज़ जा के चराग़ / सिया सचदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:43, 5 जुलाई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सिया सचदेव |अनुवादक= |संग्रह=फ़िक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
घर से मंदिर में रोज़ जा के चराग़
मैं जलाती हूँ आस्था के चराग़
आईने में नज़र नहीं आते
आपकी दिलनशीं अदा के चराग़
हर वबा को शिकस्त दी मैंने
घर की देहलीज़ पर जला के चराग़
आंच आये न मेरे बच्चों पर
मैं जलाती रही दुआ के चराग़
दिल तो उसको ही दे रहा है सदा
जो बुझा कर गया वफ़ा के चराग़
खौफ़ इतना बढा अंधेरों का
लोग सोते रहे जला के चराग़
शाम होते ही जलने लगते हैं
आसमानों पे मुस्कुरा के चराग़