भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्यार हो बादल / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:15, 12 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी की आँख का पानी
किसी के
प्यार हो बादल

कभी निर्झर, कभी नदिया
कभी सागर बने उफने
कभी तुम रेत पर बुनते रहे
बिखरे हुए सपने
किसी चट्टान को तोड़ा
लहर उछली, भँवर मचले
न बँध पाए किसी अनुबन्ध से
तटबन्ध से फिसले
बड़े नटखट
बड़े मनहर
बड़े दिलदार हो बादल

भरे रँग अन्तरिक्षों में
चलन बदले हवाओं के
तुम्हरे साथ चलते हैं
मदिर गजरथ फिज़ाओं के
रँगे पर्वत
खिली घाटी
महक उड़ती कछारों से
न जाने कौन सा उन्माद
झरते हो फुहारों से
खनकती ज़िन्दगी को
तुम नयी
रसधार हो बादल

मगर इस बार क्या आए
अँधेरा ही अँधेरा है
नहीं लगता दुपहरी है
कि संध्या है सबेरा है
मची है कीच आँगन में
गटर है राज पंथो पर
कहीं पर फिसल जाने का
कहीं पर डूबने का डर
हमें तो आज तुम ही
लग रहे पतवार हो बादल