भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कजली / 61 / प्रेमघन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:34, 21 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पंचम विभेद
ढुनमुनियाँ में गाने की कजली
मोरे हरी के लाल

"तिसिया के तेलवा मैं मुड़वा दबायो मोरे हरी के लाल"-की लय

जमुना के तीर भीर भई आज भारी-जसोदा के लाल।
झूलैं झूला मिलि गोपी ग्वाल-जसुदा के लाल॥
गावैं सब सखी मिलि कजरी रसीली-जसुदा के लाल।
बाँसुरी बजावैं दै-दै ताल-जसुदा के लाल॥
डरन डेराय प्यारी आय गर लागै-जसुदा के लाल।
होयँ तब निपट निहाल-जसुदा के लाल॥
लपटाय मोतिन के हार हरखने-जसुदा के लाल।
सटि मुरझावैं वनमाल-जसुदा के लाल॥
कौनौ सखिया कै उड़ी ओढ़नी ओढ़ावैं-जसुदा के लाल।
चंचलहु अंचल सँभाल-जसुदा के लाल॥
झूलत केहू कै नथ बेसर बंचावै-जसुदा के लाल।
केहूकै सुधारैं बेंदी भाल-जसुदा के लाल।
छतियाँ लगाय डर केहूकै छोड़ावैं-जसुदा के लाल।
कौनो के गरे में भुज डाल-जसुदा के लाल॥
इति भाँति प्रेमघन रस बरसावैं-जसुदा के लाल।
रवि छल छन्दन के जाल-जसुदा के लाल॥107॥