"जब नींद नहीं आती होगी / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'" के अवतरणों में अंतर
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− | दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तन | + | दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तन |
− | श्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन | + | श्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन |
− | लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचल | + | लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचल |
− | किस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल | + | किस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल |
− | आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी! | + | आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी! |
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− | जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में | + | जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में |
− | अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में | + | अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में |
− | साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर - | + | साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर - |
− | उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर | + | उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर |
− | तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी! | + | तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी! |
− | जब नींद नहीं आती होगी! | + | जब नींद नहीं आती होगी! |
− | हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने | + | हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने |
− | छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने | + | छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने |
− | जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर | + | जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर |
− | अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर | + | अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर |
− | क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी? | + | क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी? |
− | जब नींद नहीं आती होगी! | + | जब नींद नहीं आती होगी! |
09:17, 30 अप्रैल 2013 के समय का अवतरण
क्या तुम भी सुधि से थके प्राण ले-लेकर अकुलाती होगी!
जब नींद नहीं आती होगी!
दिनभर के कार्य-भार से थक जाता होगा जूही-सा तन
श्रम से कुम्हला जाता होगा मृदु कोकाबेली-सा आनन
लेकर तन-मन की श्रांति पड़ी होगी जब शय्या पर चंचल
किस मर्म-वेदना से क्रंदन करता होगा प्रति रोम विकल
आँखों के अम्बर से धीरे-से ओस ढुलक जाती होगी!
जब नींद नहीं आती होगी!
जैसे घर में दीपक न जले ले वैसा अंधकार तन में
अमराई में बोले न पिकी ले वैसा सूनापन मन में
साथी की डूब रही नौका जो खड़ा देखता हो तट पर -
उसकी-सी लिये विवशता तुम रह-रह जलती होगी कातर
तुम जाग रही होगी पर जैसे दुनियाँ सो जाती होगी!
जब नींद नहीं आती होगी!
हो छलक उठी निर्जन में काली रात अवश ज्यों अनजाने
छाया होगा वैसा ही भयकारी उजड़ापन सिरहाने
जीवन का सपना टूट गया - छूटा अरमानों का सहचर
अब शेष नहीं होगी प्राणों की क्षुब्ध रुलाई जीवन भर
क्यों सोच यही तुम चिंताकुल अपने से भय खाती होगी?
जब नींद नहीं आती होगी!