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"प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’" के अवतरणों में अंतर

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प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,
 
प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,
ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके ।
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::ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके ।
 
कहै रतनाकर धरा कौं धीर धूरि भयौ,
 
कहै रतनाकर धरा कौं धीर धूरि भयौ,
भूरि भीति भारनि फनिंद-फन करके ॥
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सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव सने,  
 
सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव सने,  
संसय समाये धाए धाम विधि हर के ।
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::संसय समाये धाए धाम विधि हर के ।
 
आइ फिरि ओप ठास-ठाम ब्रज-गामनि के,
 
आइ फिरि ओप ठास-ठाम ब्रज-गामनि के,
बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके ॥13॥
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::बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके ॥13॥
 
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09:34, 2 मार्च 2010 के समय का अवतरण

प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,
ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके ।
कहै रतनाकर धरा कौं धीर धूरि भयौ,
भूरि भीति भारनि फनिंद-फन करके ॥
सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव सने,
संसय समाये धाए धाम विधि हर के ।
आइ फिरि ओप ठास-ठाम ब्रज-गामनि के,
बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके ॥13॥