भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरशय्या / तेसर सर्ग / भाग 2 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:36, 28 फ़रवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर' }} {{KKPageNavigation |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धर्मराज-हित भेल सकल ई
मानव-तन-संहार।
पछतावथि ओ शोणित-प्लावित
देखि धरापर धार।।5।।

रहल धैर्य नहि मनमे किछुओ
चित्त सतत उद्भ्रान्त।
महाविनाशक खेड़ देखोलन्हि
समटि कठोर कृतान्त।।6।।

जिज्ञासामे मुनिगण आबथि
शास्त्र-धुरन्धर शान्त।
करथि शान्ति प्रस्ताव बुझाबथि
छला नृपति जे भ्रान्त।।7।।

असह वेदना बढ़ए तखन हो
वैराग्यक अनुभाव।
करथि धर्मसुत भावन सत्त्वक
धार्मिक सहज स्वभाव।।8।।