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कुछ हवा में हैं तल्खियां शायद / ध्रुव गुप्त

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कुछ हवा में हैं तल्खियां शायद
आंधियों में हो अब बयां शायद

लफ़्ज खो आए हैं मानी अपने
बात कह दे ख़मोशियां शायद

कैसी गहरी उदासियां हैं अभी
नींद कुछ दे तसल्लियां शायद

बच्चे उलझे हैं किताबों में अभी
मुंतज़िर होंगी तितलियां शायद

उस जगह हर कोई अकेला है
जिस जगह हैं बुलंदियां शायद

घर में थोड़ी सी आंच बाकी है
आज टूटा है आशियां शायद

ख़त लिखेंगे उन्हें सलीके से
आज कांपेंगी उंगलियां शायद