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Kavita Kosh से
मसल कर बनाई चिन्दियाँ
फैलीं इधर-उधर
कुछ मेज मेज़ पर
कई सलवट पड़ी चादर पर
तो बेशुमार कमरे में
निकले को व्याकुल
खुले आकाश में
एफ़० एम० चीख़ता