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|रचनाकार=हरकीरत हकीर
}}
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<poem>कितने ही टुकड़े हैं
कागचों के …
और कोई अधूरी सी नज़्म
जिस्म के अन्दर
कितनी ही कतरने हैं
अंगों की
किसी में सिंदूर है …
किसी में चूड़ियाँ
और किसी में बिछुए ….
इनका दाह संस्कार नहीं हुआ अभी
मर तो ये उसी दिन गए थे
जिस दिन तूने
इनकी जिल्त उतार
इन्हें चिथड़े -चिथड़े किया था ….
</poem>
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<poem>कितने ही टुकड़े हैं
कागचों के …
और कोई अधूरी सी नज़्म
जिस्म के अन्दर
कितनी ही कतरने हैं
अंगों की
किसी में सिंदूर है …
किसी में चूड़ियाँ
और किसी में बिछुए ….
इनका दाह संस्कार नहीं हुआ अभी
मर तो ये उसी दिन गए थे
जिस दिन तूने
इनकी जिल्त उतार
इन्हें चिथड़े -चिथड़े किया था ….
</poem>