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जगह नहीं इस धरती पर कोई और
शुभाशा के वायुमंडल से भरेतुम्हारे वक्ष-कक्ष से बढ़ कर- जानता नहीं कोई यह मुझ से ज़्यादा- कि जिसकी चौखट पर टिकाते ही अशांत माथा नींद में निर्भार होने लगती है देह एक शिशु हथेली मन की स्लेट से पोंछने लगती है आग के आखर