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|रचनाकार=विजय सिंह नाहटा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
मुझे नहीं जगाते सौ-सौ सूर्योदय
चिर नींद से जगाती है मुझे
भीतर खदबदाती आग।
रोज एक सपना देखते रहना ही है
मुझे प्रासंगिक
हर एक दिन औजार की तरह है
जिससे करता रहता हूँ
इस टूटी फूटी दुनिया की मरम्मत।
चाहता हूँ यह हो साफ़ सुथरी
औ' सलवटों से रहित।
</poem>
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|संग्रह=
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मुझे नहीं जगाते सौ-सौ सूर्योदय
चिर नींद से जगाती है मुझे
भीतर खदबदाती आग।
रोज एक सपना देखते रहना ही है
मुझे प्रासंगिक
हर एक दिन औजार की तरह है
जिससे करता रहता हूँ
इस टूटी फूटी दुनिया की मरम्मत।
चाहता हूँ यह हो साफ़ सुथरी
औ' सलवटों से रहित।
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