भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
|रचनाकार=रमानाथ अवस्थी
}}
{{KKCatGeet}}
<poem>
कभी कभी जब मेरी तबियत
यों ही घबराने लगती है
दिन भी मिलता दिन भर को
कोई पूरी तरह न मिलता
घर भी बिन दीवारों वाला
जब दुविधा छाने लगती है
तभी ज़िन्दगी मुझे न जाने
क्या -क्या समझाने लगती है
पूरी होने की उम्मीद में
रही सदा हर नींद अधूरी
तन चाहे जितना सुंदर हो
मरना तो उसकी मजबूरीमज़बूरी
</poem>