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"कहूँ-कहूँ बनीं-ठनीं, लसैं सु बापिका घनी / शृंगार-लतिका / द्विज" के अवतरणों में अंतर

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नाराच
(परिपूर्ण ऋतुराज का प्रकाश रूप से वर्णन)

कहूँ-कहूँ बनीं-ठनीं, लसैं सु बापिका घनी । जहाँ-तहाँ मलिंद-बॄंद-बृंद की प्रभा ठनी ॥
चकोर चारु-चारु चाँदनीन चौंथते चहूँ । कपोत-गोत कौ तहाँ सु सोर होत है कहूँ ॥२५॥