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किरीट सवैया
(कवि संतोश-वर्णन)
आई न जो बक-बावरे पैं, द्विजदेव’ जू हंसन की तौ गई गति ।
मैंढुक-मीन न मान करयौ तौ, भई है कहा अरबिंदन की छति ॥
उक्ति-उदार कबिंदन पैं, बन-बासिन की सुभई न भई रति ।
जो पैं गँवारन लीन्हैं न तौ, घटि जाती जबाहिर की कहूँ कीमति ॥६१॥