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17:52, 25 नवम्बर 2011 का अवतरण
साये में धूप
रचनाकार | दुष्यंत कुमार |
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प्रकाशक | राधाकृष्ण प्रकाशन,7/31, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 |
वर्ष | जनवरी ०१, २००८ |
भाषा | हिन्दी |
विषय | कविताएँ |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 64 |
ISBN | 978-81-7119-794-1 |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- भूमिका / साये में धूप / दुष्यंत कुमार
- कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए / दुष्यंत कुमार
- कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं / दुष्यंत कुमार
- ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा / दुष्यंत कुमार
- इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है / दुष्यंत कुमार
- देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली / दुष्यंत कुमार
- खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही / दुष्यंत कुमार
- परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं / दुष्यंत कुमार
- अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ / दुष्यंत कुमार
- भूख है तो सब्र कर / दुष्यंत कुमार
- ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो / दुष्यंत कुमार
- कहीं पे धूप / दुष्यंत कुमार
- आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख / दुष्यंत कुमार
- मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए / दुष्यंत कुमार
- पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी / दुष्यंत कुमार
- मत कहो, आकाश में कुहरा घना है / दुष्यंत कुमार
- चांदनी छत पे चल रही होगी / दुष्यंत कुमार
- इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और / दुष्यंत कुमार
- हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए / दुष्यंत कुमार
- आज सड़कों पर / दुष्यंत कुमार
- मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे / दुष्यंत कुमार
- आज वीरान अपना घर देखा / दुष्यंत कुमार
- वो निगाहें सलीब है / दुष्यंत कुमार
- बाएँ से उड़के दाईं दिशा को गरुड़ गया / दुष्यंत कुमार
- अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए / दुष्यंत कुमार
- ज़िंदगानी का कोई मक़सद नहीं है / दुष्यंत कुमार
- ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए / दुष्यंत कुमार
- जाने किस—किसका ख़्याल आया है / दुष्यंत कुमार
- ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती / दुष्यंत कुमार
- तुमको निहरता हूँ सुबह से ऋतम्बरा / दुष्यंत कुमार
- रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है / दुष्यंत कुमार
- बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं / दुष्यंत कुमार
- हालाते-जिस्म, सूरते—जाँ और भी ख़राब / दुष्यंत कुमार
- ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो / दुष्यंत कुमार
- धूप ये अठखेलियाँ हर रोज़ करती है / दुष्यंत कुमार
- पक गई हैं आदतें बातों से सर होंगी नहीं / दुष्यंत कुमार
- एक कबूतर चिठ्ठी ले कर पहली—पहली बार उड़ा / दुष्यंत कुमार
- ये धुएँ का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूँ / दुष्यंत कुमार
- तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए / दुष्यंत कुमार
- लफ़्ज़ एहसास—से छाने लगे, ये तो हद है / दुष्यंत कुमार
- ये शफ़क़ शाम हो रही है अब / दुष्यंत कुमार
- एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है / दुष्यंत कुमार
- बहुत सँभाल के रक्खी तो पाएमाल हुई / दुष्यंत कुमार
- वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है / दुष्यंत कुमार
- किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम / दुष्यंत कुमार
- होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिये / दुष्यंत कुमार
- मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ / दुष्यंत कुमार
- अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार / दुष्यंत कुमार
- तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं / दुष्यंत कुमार