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"प्रथम अध्याय / प्रथम वल्ली / भाग २ / कठोपनिषद / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

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::त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ।<br>
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त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ।<br>
::ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥<br>
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ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥<br>
 
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::त्रय  बार  करते  जो अनुष्ठान को, शास्त्र  विधि  से  अग्नि  का,<br>
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त्रय  बार  करते  जो अनुष्ठान को, शास्त्र  विधि  से  अग्नि  का,<br>
::ऋक  साम  यजुः  के  तत्व  ज्ञान  व दान  यज्ञ    विधान का।<br>
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ऋक  साम  यजुः  के  तत्व  ज्ञान  व दान  यज्ञ    विधान का।<br>
::निष्काम  भाव  से  चयन  करते वे  ही,  पाते    शान्ति  को,<br>
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निष्काम  भाव  से  चयन  करते वे  ही,  पाते    शान्ति  को,<br>
::जन्म  मृत्यु  विहीन  होकर,  शेष  करते      भ्रांति      को॥ [ १७ ]<br><br>
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जन्म  मृत्यु  विहीन  होकर,  शेष  करते      भ्रांति      को॥ [ १७ ]<br><br>
 
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::एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।<br>
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एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।<br>
::एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥<br>
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एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥<br>
 
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::नाचिकेत  को यह अग्नि  विद्या,  स्वर्ग दायिनी  ज्ञात्त हो,<br>
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नाचिकेत  को यह अग्नि  विद्या,  स्वर्ग दायिनी  ज्ञात्त हो,<br>
::जिसे  दूसरे  वर से तुम्ही  ने  माँगा  था    विज्ञात  हो।<br>
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जिसे  दूसरे  वर से तुम्ही  ने  माँगा  था    विज्ञात  हो।<br>
::यह  अग्नि  विद्या  अब  तुम्हारे  नाम  से  ही  विज्ञ  हो,<br>
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यह  अग्नि  विद्या  अब  तुम्हारे  नाम  से  ही  विज्ञ  हो,<br>
::नचिकेता  अब  तुम  तीसरा  वर  मांग  लो  दृढ़  प्रग्य हो॥  [ १९ ]<br><br>
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नचिकेता  अब  तुम  तीसरा  वर  मांग  लो  दृढ़  प्रग्य हो॥  [ १९ ]<br><br>
 
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::देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म : ।<br>
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देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म : ।<br>
::अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥<br>
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अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥<br>
 
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::आत्म  तत्व  का  विषय  नचिकेता  बहुत  ही  सूक्ष्म  है,<br>
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आत्म  तत्व  का  विषय  नचिकेता  बहुत  ही  सूक्ष्म  है,<br>
::सहज  ग्राह्य  न देवों  से बी,  ज्ञात  अतिशय  न्यून  है।<br>
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सहज  ग्राह्य  न देवों  से बी,  ज्ञात  अतिशय  न्यून  है।<br>
::यद्यपि  प्रतिज्ञ  हूँ  ऋणी हूँ,  पर  दूसरा  वर  मांग  लो,<br>
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यद्यपि  प्रतिज्ञ  हूँ  ऋणी हूँ,  पर  दूसरा  वर  मांग  लो,<br>
::देवों  से  भी  अविदित  मर्म  है,  गूढ़  है, यह  जान लो॥ [ २१ ] <br><br>
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देवों  से  भी  अविदित  मर्म  है,  गूढ़  है, यह  जान लो॥ [ २१ ] <br><br>
 
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::शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।<br>
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शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।<br>
::भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥<br>
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भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥<br>
 
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::नचिकेता  प्रिय  इस वर को लेकर क्या करोगे मान लो ,<br>
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नचिकेता  प्रिय  इस वर को लेकर क्या करोगे मान लो ,<br>
::सुत, पौत्र, गौएँ, स्वर्ण, गज, साम्राज्य, अश्व  को मांग लो।<br>
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सुत, पौत्र, गौएँ, स्वर्ण, गज, साम्राज्य, अश्व  को मांग लो।<br>
::तुम  आयु  इच्छित  भोगने  की चाहना हो  तो  कहो,<br>
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तुम  आयु  इच्छित  भोगने  की चाहना हो  तो  कहो,<br>
::सब सुलभ, दुर्लभ आत्म  तत्व है,  बस इसी  को मत कहो॥ [ २३ ]<br><br>
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सब सुलभ, दुर्लभ आत्म  तत्व है,  बस इसी  को मत कहो॥ [ २३ ]<br><br>
 
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::ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत:  प्रार्थयस्व।<br>
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ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत:  प्रार्थयस्व।<br>
::इमा रामा : सरथा :    सतूर्या न  हीदृशा    लम्भनीया    मनुष्यै:।<br>
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इमा रामा : सरथा :    सतूर्या न  हीदृशा    लम्भनीया    मनुष्यै:।<br>
::आभिर्मत्प्रत्ताभि : परिचारयस्व् नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥<br>
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आभिर्मत्प्रत्ताभि : परिचारयस्व् नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥<br>
 
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::भू  लोक  में  जो  भोग दुर्लभ, सुलभ  सब  कर दूँ  अभी,<br>
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भू  लोक  में  जो  भोग दुर्लभ, सुलभ  सब  कर दूँ  अभी,<br>
::रमणियां  दुर्लभ, सहज  सेवा      समर्पित    हों  सभी।<br>
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रमणियां  दुर्लभ, सहज  सेवा      समर्पित    हों  सभी।<br>
::नचिकेता  प्रिय  विश्वानि  वैभव,  सब  तुम्हारे  ही लिए<br>
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नचिकेता  प्रिय  विश्वानि  वैभव,  सब  तुम्हारे  ही लिए<br>
::पर  मृत्यु  बाद  की  आत्मा  का मर्म  मत पूछो  प्रिये॥ [ २५ ]<br><br>
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पर  मृत्यु  बाद  की  आत्मा  का मर्म  मत पूछो  प्रिये॥ [ २५ ]<br><br>
 
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::न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा ।<br>
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न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा ।<br>
::जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥<br>
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जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥<br>
 
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::धन  से  हुआ  कब  तृप्त  मानव,    अर्थ  के क्या अर्थ  हैं,<br>
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धन  से  हुआ  कब  तृप्त  मानव,    अर्थ  के क्या अर्थ  हैं,<br>
::अगणित  प्रलोभन  आपके ,  मेरे  लिए  सब  व्यर्थ    हैं।<br>
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अगणित  प्रलोभन  आपके ,  मेरे  लिए  सब  व्यर्थ    हैं।<br>
::शुभ  दृष्टि  से  तो  आपकी,  धन  आयु  स्वयं  यथेष्ट हैं, इस  विषय<br>
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शुभ  दृष्टि  से  तो  आपकी,  धन  आयु  स्वयं  यथेष्ट हैं, इस  विषय<br>
::अब  आत्म  ज्ञान  का  तीसरा,  वर  ही  मुझे  तो  श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]<br><br>
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अब  आत्म  ज्ञान  का  तीसरा,  वर  ही  मुझे  तो  श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]<br><br>
 
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::यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।<br>
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यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।<br>
::योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥<br>
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योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥<br>
 
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::मरणोपरांत  की  आत्मा  अस्तित्व  में  है  या    नहीं,<br>
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मरणोपरांत  की  आत्मा  अस्तित्व  में  है  या    नहीं,<br>
::इस  विषय  का  ज्ञातव्य  ज्ञान,  कहें  प्रभो!  इच्छा यही।<br>
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इस  विषय  का  ज्ञातव्य  ज्ञान,  कहें  प्रभो!  इच्छा यही।<br>
::वर  आत्म ज्ञान  का  गूढ़,  सत्य  है, पर यही  वर चाहिए,<br>
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वर  आत्म ज्ञान  का  गूढ़,  सत्य  है, पर यही  वर चाहिए,<br>
::सब  प्रलोभन  व्यर्थ  मुझको ,  आत्म  ज्ञान  ही  चाहिए॥  [ २९ ]<br><br>
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सब  प्रलोभन  व्यर्थ  मुझको ,  आत्म  ज्ञान  ही  चाहिए॥  [ २९ ]<br><br>
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॥ इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमा वल्ली ॥
 
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18:41, 5 दिसम्बर 2008 के समय का अवतरण

तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं तवेहाद्य ददामि भूय: ।
तवैव नामा भवितायमग्नि : सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥

नचिकेता की अप्रतिम बुद्धि से, धर्मराज चकित हुए,
एक और वर देता हूँ प्रिय, मन मुदित कह हर्षित हुए।
अब तुम्हारे ही नाम से, यह अग्नि विद्या प्रसिद्ध हो,
जो रत्नमाल देवत्व सिद्धि को विविध रूपा सिद्ध हो॥ [ १६ ]

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू ।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥

त्रय बार करते जो अनुष्ठान को, शास्त्र विधि से अग्नि का,
ऋक साम यजुः के तत्व ज्ञान व दान यज्ञ विधान का।
निष्काम भाव से चयन करते वे ही, पाते शान्ति को,
जन्म मृत्यु विहीन होकर, शेष करते भ्रांति को॥ [ १७ ]

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम् ।
स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥

अग्नि चयन विधि ईंटों की, संख्या स्वरूप को जानते,
नाचिकेतम अग्नि विद्या के मर्म को पहचानते।
तीन बार के अनुष्ठान से ही, जन्म मृत्यु के पाश से,
रहित होकर स्वर्ग का पाते हैं सुख विश्वास से॥ [ १८ ]

एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण ।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥

नाचिकेत को यह अग्नि विद्या, स्वर्ग दायिनी ज्ञात्त हो,
जिसे दूसरे वर से तुम्ही ने माँगा था विज्ञात हो।
यह अग्नि विद्या अब तुम्हारे नाम से ही विज्ञ हो,
नचिकेता अब तुम तीसरा वर मांग लो दृढ़ प्रग्य हो॥ [ १९ ]

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके ।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय : ॥२०॥

उपरांत मृत्यु के आत्मा अस्तित्व में है या नहीं
अव्यक्त अब तक तथ्य यह, इस विषय में एक मत नहीं।
उपदिष्ट आपसे मर्म इसका, धर्मराज मैं जान लूँ
तीनों वरों में तीसरा वर , आपसे मैं मांग लूँ॥ [ २० ]

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म : ।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥

आत्म तत्व का विषय नचिकेता बहुत ही सूक्ष्म है,
सहज ग्राह्य न देवों से बी, ज्ञात अतिशय न्यून है।
यद्यपि प्रतिज्ञ हूँ ऋणी हूँ, पर दूसरा वर मांग लो,
देवों से भी अविदित मर्म है, गूढ़ है, यह जान लो॥ [ २१ ]

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं च मृत्यों यत्र सुविज्ञेममात्थ ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यों न लभ्यो नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥२२॥

देवों से भी अज्ञेय यदि और विषय इतना गूढ़ है,
फिर आपसा ज्ञाता कहाँ मैं पाउँगा, जग मूढ़ है।
मैं गूढ़ता से हार, वर कोई अन्य लूँ , यह कथन है ,
इस वर के संम नहीं अन्य वर, कृपया कहें पुनि नमन है॥ [ २२ ]

शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् ।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥

नचिकेता प्रिय इस वर को लेकर क्या करोगे मान लो ,
सुत, पौत्र, गौएँ, स्वर्ण, गज, साम्राज्य, अश्व को मांग लो।
तुम आयु इच्छित भोगने की चाहना हो तो कहो,
सब सुलभ, दुर्लभ आत्म तत्व है, बस इसी को मत कहो॥ [ २३ ]

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च ।
महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां त्वा कामभाजं करोमि॥२४॥

धन राज्य वैभव दीर्घ जीवन, यदि तुम्हारी दृष्टि में,
वर आत्म विषयक सम यदि हैं, मांग लो सब सृष्टि में।
इस विश्व के विश्वानि वैभव, दासवत, हो जायेंगे,
इच्छित युगों तक जियो, भोगो शेष न हो पायेगे॥ [ २४ ]

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
इमा रामा : सरथा : सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:।
आभिर्मत्प्रत्ताभि : परिचारयस्व् नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥

भू लोक में जो भोग दुर्लभ, सुलभ सब कर दूँ अभी,
रमणियां दुर्लभ, सहज सेवा समर्पित हों सभी।
नचिकेता प्रिय विश्वानि वैभव, सब तुम्हारे ही लिए
पर मृत्यु बाद की आत्मा का मर्म मत पूछो प्रिये॥ [ २५ ]

श्वो भावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज: ।
अपि सर्वम् जीवितमल्पेमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥२६॥

नाशवान हैं पौत्र, सुत, गौ, अश्व, गज, साम्राज्य भी,
सब मरण धर्मा प्राण, आयु, अप्सरा, रथ, राज्य भी।
बहु प्रेय श्रेय सभी चुकेगे, क्षणिक इस संसार में,
है शक्य कल होंगी नहीं, क्यों सार खोजूँ असार में॥ [ २६ ]

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा ।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥

धन से हुआ कब तृप्त मानव, अर्थ के क्या अर्थ हैं,
अगणित प्रलोभन आपके , मेरे लिए सब व्यर्थ हैं।
शुभ दृष्टि से तो आपकी, धन आयु स्वयं यथेष्ट हैं, इस विषय
अब आत्म ज्ञान का तीसरा, वर ही मुझे तो श्रेष्ठ है॥ [ २७ ]

अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन् मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥

सब जानते हैं, सुविज्ञ मानव, मरण धर्मा प्राण हैं,
जग नारी के सौन्दर्य सुख, धन भोग से कब त्राण है।
छोड़ आपको रमे इनमें, कौन ऐसा मूढ़ है,
मृत्यु हीन हे धर्मराज ! ही आप दुर्लभ गूढ़ हैं॥ [ २८ ]

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥

मरणोपरांत की आत्मा अस्तित्व में है या नहीं,
इस विषय का ज्ञातव्य ज्ञान, कहें प्रभो! इच्छा यही।
वर आत्म ज्ञान का गूढ़, सत्य है, पर यही वर चाहिए,
सब प्रलोभन व्यर्थ मुझको , आत्म ज्ञान ही चाहिए॥ [ २९ ]



॥ इति काठकोपनिषदि प्रथमाध्याये प्रथमा वल्ली ॥