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षष्ठ प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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भारद्वाज पुत्र सुकेशा ने पूछा ऋषि पिप्लाद से,
मुझसे हिरण्यनाभ ने यह पूछा था आह्लाद से।
सोलह कलाओं मय पुरूष से, कहो क्या मैं विज्ञ हूँ,
नहीं, मैं नहीं जानता, अथ कहें आप कृतज्ञ हूँ॥ [ १ ]

हे प्रिय सुकेशा वह शरीर के अति अन्तः प्रकट है,
सोलह कलाओं मय पुरूष अन्तः शरीरे नकट है।
अन्यत्र अन्वेषण हो उसका, खोज उसकी व्यर्थ है,
अभिलाषा उत्कट जब जगे, मिले हृदय मैं यही अर्थ है॥ [ २ ]

अति आदि में महा सर्ग के , सोचा रचयिता ने जगत के,
क्या तत्व डालूँ महत कि जिसके बिना अस्तित्व के।
न मैं रहूँ , सत्ता मेरी भी साथ उसके विलीन हो,
यदि वह प्रतिष्ठित मैं भी स्थित , मेरी सत्ता आधीन हो॥ [ ३ ]

यह सोच ब्रह्म ने अति प्रथम रचे प्राण फ़िर श्रद्धा महे,
नभ , वायु, जल, भू, तेज, मन, तप, अन्न, वीर्य, विद्या, अहे।
बहु मन्त्र , बहु विधि कर्म, लोकों का सृजन और नाम भी,
अथ रचित सोलह कला मय जग, पुरूष ब्रह्म का धाम भी॥ [ ४ ]