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द्वितीय अध्याय / प्रथम खंड / ऐतरेयोपनिषद / मृदुल कीर्ति

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अति-अति प्रथम यह जीव गर्भ में, वीर्य का ही रूप है,
धारक पिता के स्वरुप गर्भ में, वीर्य का भी स्वरुप है,
यह पुरूष तन में जो वीर्य है, यह सकल अंगों का सार है,
आत्म संचय फ़िर नारी सिंचन, प्रथम जन्म आधार है॥ [ १ ]

वह गर्भ नारी के स्वयम अपने , अंगों के ही समान हैं,
अतः धारक नारी को किसी पीडा का नहीं भान है.
पति अंश को गर्भस्थ अंगीकार करती नारी है,
ऐसी व्यवस्था पर व्यवस्थित सृष्टि रचना सारी है॥ [ २ ]

करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा

गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,

अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ३ ]

करे गर्भ धारण प्रसव के ही पूर्व तक नारी तथा,
जन्मांतरण शिशु के पिता , करें संस्कार की है प्रथा

गर्भान्तरण नारी का पोषण श्रेष्ठ और विशेष हो ,

अथ जीव का जन्मांतरण ही द्वितीय जन्म प्रवेश हो॥ [ ४ ]

ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ५ ]


ऋषि वाम देव को गर्भ में ही तत्व ज्ञान का ज्ञान था,
जन्म मृत्यु शरीर के ही विकार हैं यह भान था.
अब तत्व ज्ञान से मैं शरीरों की अहंता से मुक्त हूँ ,
अब जन्म मृत्यु शरीर हीन हूँ , बाज सम उन्मुक्त हूँ॥ [ ६ ]