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"गुंजन / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

 
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+
* [[वन-वन, उपवन / सुमित्रानंदन पंत]]
* [[वन- वन उपवन / सुमित्रानंदन पंत]]
+
 
* [[तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[तप रे मधुर-मधुर मन / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[शांत सरोवर का उर / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[शांत सरोवर का उर / सुमित्रानंदन पंत]]
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* [[जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[जाने किस छल-पीड़ा से / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत]]
 
* [[क्या मेरी आत्मा का चिर धन / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[खिलतीं मधु की नव कलियाँ / सुमित्रानंदन पंत]]
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+
* [[सुन्दर विश्वासों से ही / सुमित्रानंदन पंत]]
|रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत
+
* [[सुन्दर मृदु-मृदु रज का तन / सुमित्रानंदन पंत]]
}}
+
* [[गाता खग प्रातः उठ कर / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[विहग, विहग / सुमित्रानंदन पंत]]
वन- वन उपवन<br>
+
* [[जग के दुख दैन्य शयन पर / सुमित्रानंदन पंत]]
छाया उन्मन- उन्मन गुंजन<br>
+
* [[तुम मेरे मन के मानव / सुमित्रानंदन पंत]]
नव वय के अलियों का गुंजन !<br><br>
+
* [[झर गई कली / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[प्रिये, प्राणों की प्राण / सुमित्रानंदन पंत]]
रुपहले, सुनहले, आम्र, मौर,<br>
+
* [[कब से विलोकती तुमको / सुमित्रानंदन पंत]]
नीले, पीले औ ताम्र भौंर,<br>
+
* [[मुसकुरा दी थी क्या तुम प्राण / सुमित्रानंदन पंत]]
रे गंध-गंध हो ठौर-ठौर<br>
+
* [[नील-कमल सी हैं वे आँख / सुमित्रानंदन पंत]]
उड़ पाँति-पाँति में चिर उन्मन<br>
+
* [[तुम्हारी आँखों का आकाश / सुमित्रानंदन पंत]]
करते मधु के वन में गुंजन !<br><br>
+
* [[नवल मेरे जीवन की डाल / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[आज रहने दो यह गृह-काज / सुमित्रानंदन पंत]]
वन के विटपों की डाल-डाल<br>
+
* [[मधुवन / सुमित्रानंदन पंत]]
कोमल कलियों से लाल-लाल,<br>
+
* [[रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम / सुमित्रानंदन पंत]]
फैली नव मधु की रूप ज्वाल,<br>
+
* [[कलरव किसको नहीं सुहाता / सुमित्रानंदन पंत]]
जल-जल प्राणों के अलि उन्मन<br>
+
* [[अलि! इन भोली-बातों को / सुमित्रानंदन पंत]]
करते स्पन्दन, भरते-गुंजन !<br><br>
+
* [[आँखों की खिड़की से उड़ उड़ / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[जीवन की चंचल सरिता में / सुमित्रानंदन पंत]]
अब फैला फूलों में विकास,<br>
+
* [[मेरा प्रतिपल सुन्दर हो / सुमित्रानंदन पंत]]
मुकुलों के उर में मदिर वास,<br>
+
* [[आज शिशु के कवि को अनजान / सुमित्रानंदन पंत]]
अस्थिर सौरभ से मलय-श्वास,<br>
+
* [[लाई हूँ फूलों का हास / सुमित्रानंदन पंत]]
जीवन-मधु-संचय को उन्मन<br>
+
* [[जीवन का उल्लास / सुमित्रानंदन पंत]]
करते प्राणों के अलि गुंजन ! <br><br>
+
* [[प्राण! तुम लघु-लघु गात / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[जग के उर्वर आँगन में / सुमित्रानंदन पंत]]
(जनवरी, 1932)
+
* [[नीरव-तार हृदय में / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[विहग के प्रति / सुमित्रानंदन पंत]]
1
+
* [[एक तारा / सुमित्रानंदन पंत]]
 
+
* [[चाँदनी / सुमित्रानंदन पंत]]
तप रे मधुर-मधुर मन !<br>
+
* [[अप्सरा / सुमित्रानंदन पंत]]
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,<br>
+
* [[नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत]]
जग-जीवन की ज्वाला में गल,<br>
+
* [[तेरा कैसा गान / सुमित्रानंदन पंत]]
बन अकलुष, उज्जवल औ’ कोमल<br>
+
* [[चींटियों की-सी काली पाँति / सुमित्रानंदन पंत]]
तप रे विधुर-विधुर मन !<br><br>
+
 
+
अपने सजल-स्वर्ण से पावन<br>
+
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,<br>
+
स्थापित कर जग में अपनापन;<br>
+
ढल रे ढल आतुर मन !<br><br>
+
     
+
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन<br>
+
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन<br>
+
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,<br>
+
मूर्तिमान बन, निर्धन !<br>
+
गल रे गल निष्ठुर मन ! <br><br>
+
 
+
(जनवरी, 1932)
+
 
+
2
+
 
+
शांत सरोवर का उर<br>
+
किस इच्छ के लहरा कर<br>
+
हो उठता चंचल, चंचल !<br><br>
+
 
+
सोये वीणा के सुर<br>
+
क्यों मधुर स्पर्श से मरमर्<br>
+
बज उठते प्रतिपल, प्रतिपल !<br><br>
+
 
+
आशा के लघु अंकुर<br>
+
किस सुख से पर फड़का कर<br>
+
फैलाते नव दल पर दल !<br><br>
+
 
+
मानव का मन निष्ठुर<br>
+
सहसा आँसू में झर-झर<br>
+
क्यों जाता पिघल-पिघल गल !<br><br>
+
 
+
मैं चिर उत्कंठातुर<br>
+
जगती के अखिल चराचर<br>
+
यों मौन-मुग्ध किसके बल ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
3
+
 
+
आते कैसे सूने पल<br>
+
जीवन में ये सूने पल ?<br>
+
जब लगता सब विश्रृंखल;<br>
+
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल !<br><br>
+
 
+
खो देती उर की वीणा<br>
+
झंकार मधुर जीवन की,<br>
+
बस साँसों के तारों में<br>
+
सोती स्मृति सूनेपन की !<br><br>
+
 
+
बह जाता बहने का सुख,<br>
+
लहरों का कलरव, नर्तन,<br>
+
बढ़ने की अति-इच्छा में<br>
+
जाता जीवन से जीवन !<br><br>
+
 
+
आत्मा है सरिता के भी<br>
+
जिससे सरिता है सरिता;<br>
+
जल-जल है, लहर-लहर रे,<br>
+
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता !<br><br>
+
 
+
क्या यह जीवन ? सागर में<br>
+
जल भार मुखर भर देना !<br>
+
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-<br>
+
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना !<br><br>
+
 
+
सागर संगम में है सुख,<br>
+
जीवन की गति में भी लय,<br>
+
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण<br>
+
जीवन लय से हों मधुमय <br><br>
+
 
+
(जनवरी,1932)
+
 
+
4
+
 
+
मैं नहीं चाहता चिर सुख,<br>
+
मैं नहीं चाहता चिर दुख,<br>
+
सुख दुख की खेल मिचौनी<br>
+
खोले जीवन अपना मुख !<br><br>
+
 
+
सुख-दुख के मधुर मिलन से<br>
+
यह जीवन हो परिपूरण;<br>
+
फिर घन में ओझल हो शशि,<br>
+
फिर शशि से ओझल हो घन !<br><br>
+
       
+
जग पीड़ित है अति दुख से<br>
+
जग पीड़ित रे अति सुख से,<br>
+
मानव जग में बँट जाएँ<br>
+
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !<br><br>
+
 
+
अविरत दुख है उत्पीड़न,<br>
+
अविरत सुख भी उत्पीड़न,<br>
+
दुख-सुख की निशा-दिवा में,<br>
+
सोता-जगता जग-जीवन।<br><br>
+
 
+
यह साँझ-उषा का आँगन,<br>
+
आलिंगन विरह-मिलन का;<br>
+
चिर हास-अश्रुमय आनन<br>
+
रे इस मानव-जीवन का ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
5
+
 
+
देखूँ सबके उर की डाली<br>
+
किसने रे क्या-क्या चुने फूल<br>
+
जग के छवि-उपवन से अकूल !<br>
+
इसमें कलि, किसलय,कुसुम, शूल !<br><br>
+
 
+
किस छवि, किस मधु के मधुर भाव ?<br>
+
किस रँग, रस, रुचि से किसे चाव !<br>
+
कवि से रे किसका क्या दुराव !<br><br>
+
 
+
किसने ली पिक की विरह तान ?<br>
+
किसने मधुकर का मिलन गान ?<br>
+
या फुल्ल कुसुम, या मुकुल म्लान ?<br>
+
देखूँ सबके उर की डाली-<br><br>
+
 
+
सब में कुछ सुख के तरुण फूल<br>
+
सब में कुछ दुख के करुण शूल-<br>
+
सुख-दुख न कोई सका भूल ? <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
6
+
 
+
सागर की लहर लहर में<br>
+
है हास स्वर्ण किरणों का,<br>
+
सागर के अंतस्तन में<br>
+
अवसाद अवाक् कणों का !<br><br>
+
           
+
यह जीवन का है सागर,<br>
+
जग-जीवन का है सागर,<br>
+
प्रिय-प्रिय विषाद रे इसका<br>
+
प्रिय प्रि’ आह्लाद रे इसका !<br><br>
+
 
+
जग जीवन में हैं सुख-दुख,<br>
+
सुख-दुख में है जग जीवन;<br>
+
हैं बँधे बिछोह-मिलन दो<br>
+
देकर चिर स्नेहालिंगन !<br><br>
+
   
+
जीवन की लहर-लहर से<br>
+
हँस खेल-खेल रे नाविक !<br>
+
जीवन के अंतस्तल में<br>
+
नित बूड़-बूड़ रे भाविक ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
7
+
 
+
आँसू की आँखों से मिल<br>
+
भर ही आते हैं लोचन,<br>
+
हँसमुख ही से जीवन का<br>
+
पर हो सकता अभिवादन !<br><br>
+
 
+
अपने मधु में लिपटा पर<br>
+
कर सकता मधुप न गुंजन,<br>
+
करुणा से भारी अंतर<br>
+
खो देता जीवन-कंपन<br><br>
+
 
+
विश्वास चाहता है मन,<br>
+
विश्वास पूर्ण जीवन पर;<br>
+
सुख-दुख के पुलिन डुबा कर<br>
+
लहराता जीवन-सागर !<br><br>
+
           
+
दुख इस मानव-आत्मा का<br>
+
रे नित का मधुमय-भोजन<br>
+
दुख के तम को खा-खा कर<br>
+
भरती प्रकाश से वह मन !<br><br>
+
 
+
अस्थिर है जग का सुख-दुख<br>
+
जीवन ही सत्य चिरंतन !<br>
+
सुख-दुख से ऊपर; मन का<br>
+
जीवन ही रे अवलंबन ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
8
+
 
+
कुसुमों के जीवन का पल<br>
+
हँसता ही जग में देखा,<br>
+
इन म्लान, मलिन अधरों पर<br>
+
स्थिर रही न स्मिति की रेखा !<br><br>
+
 
+
वन की सूनी डाली पर<br>
+
सीखा कलि ने मुसकाना,<br>
+
मैं सीख न पाया अब तक<br>
+
सुख से दुख को अपनाना !<br><br>
+
 
+
काँटों से कुटिल भरी हो<br>
+
यह जटिल जगत की डाली,<br>
+
इसमें ही तो जीवन के<br>
+
पल्लव की फूटी लाली !<br><br>
+
 
+
अपनी डाली के काँटे<br>
+
बेधते नहीं अपना तन<br>
+
सोने-सा उज्जवल बनने<br>
+
तपता नित प्राणों का धन !<br><br>
+
 
+
दुख-दावा से नव अंकुर<br>
+
पाता जग-जीवन का वन,<br>
+
करुणार्द्र विश्व की गर्जन,<br>
+
बरसाती नव जीवन-कण ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
9
+
 
+
जाने किस छल-पीड़ा से<br>
+
व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन,<br>
+
ज्यों बरस-बरस पड़ने को<br>
+
हों उमड़-उमड़ उठते घन !<br><br>
+
 
+
अधरों पर मधुर अधर धर,<br>
+
कहता मदु स्वर में जीवन-<br>
+
बस एक मधुर इच्छा पर<br>
+
अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन<br><br>
+
       
+
पुलकों से लद जाता तन,<br>
+
मुँद जाते मद से लोचन<br>
+
तत्क्षण सचेत करता मन-<br>
+
ना, मुझे इष्ट है साधन<br><br>
+
 
+
इच्छा है जग का जीवन<br>
+
पर साधन आत्मा का धन;<br>
+
जीवन की इच्छा है छल<br>
+
आत्मा का जीवन जीवन !<br><br>
+
 
+
फिरतीं नीरव नयनों में<br>
+
छाया-छबियाँ मन-मोहन<br>
+
फिर-फिर विलीन होने को<br>
+
ज्यों घिर-घिर उठते हों घन<br><br>
+
 
+
ये आधी, अति इच्छाएँ<br>
+
साधन भी बाधा बंधन;<br>
+
साधन भी इच्छा ही है<br>
+
सम-इच्छा ही रे साधन !<br><br>
+
 
+
रह-रह मिथ्या-पीड़ा से<br>
+
दुखता-दुखता मेरा मन<br>
+
मिथ्या ही बतला देती<br>
+
मिथ्या का रे मिथ्यापन ! <br><br>
+
 
+
(फरवरी,1932)
+
 
+
10
+
 
+
क्या मेरी आत्मा का चिर धन ?<br>
+
मैं रहता नित उन्मन, उन्मन !<br><br>
+
 
+
प्रिय मुझे विश्व यह सचराचर,<br>
+
तृण, तरु, पशु, पक्षी, नर, सुरवर,<br>
+
सुन्दर अनादि शुभ सृष्टि अमर;<br><br>
+
 
+
निज सुख से ही चिर चंचल मन,<br>
+
मैं हूँ प्रतिपल उन्मन, उन्मन।<br><br>
+
 
+
मैं प्रेम उच्चादर्शों का,<br>
+
संस्कृति के स्वर्गिक-स्पर्शों का,<br>
+
जीवन के हर्ष-विमर्षों का;<br><br>
+
   
+
लगता अपूर्ण मानव-जीवन,<br>
+
मैं इच्छा से उन्मन, उन्मन।<br><br>
+
 
+
जग-जीवन में उल्लास मुझे,<br>
+
नव आशा; नव अभिलाष मुझे;<br>
+
ईश्वर पर चिर विश्वास मुझे;<br><br>
+
 
+
चाहिए विश्व को नव जीवन<br>
+
मैं आकुल रे उन्मन उन्मन !
+

12:48, 4 अगस्त 2014 के समय का अवतरण

गुंजन
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रचनाकार सुमित्रानंदन पंत
प्रकाशक भारती भंडार, रामघाट, बनारस सिटी
वर्ष 1932
भाषा हिन्दी
विषय कविताएँ
विधा
पृष्ठ 84
ISBN
विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।