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मनहरन घनाक्षरी
(वन-शोभा वर्णन)

जानि-जानि आपने ही गेह कै अराम, हरि-इंदिरा के आठौं जाम मन अटक रहैं ।
’द्विजदेव’ बन-दुति दूनिऐ निहारि कछु, माँख सौं मनोज मन-माँहि मटके रहैं ॥
मानसर ऐसी बनी बावरी बिलोकि तामैं, सुरपति हूँ के हिए अति खटके रहैं ।
नंदन के धोखैं ह्वैं अनंदित, इहाँई देव-बृंदन के बृंद नित भूले-भटके रहैं ॥१३॥