भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"देखत हीं बन फूले पलास / शृंगार-लतिका / द्विज" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्विज }}{{KKAnthologyBasant}} {{KKPageNavigation |पीछे=मंद दुचंद भए बुध-बै…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
20:27, 3 जुलाई 2011 के समय का अवतरण
किरीट सवैया
(ऋतुराज के दर्शन से अपनी दशा का वर्णन)
देखत हीं बन फूले पलास, बिलोकत हीं कछु भौंर की भीरन ।
बावरी सी मति मेरी भई, लखि बावरी-कंज-खिले-घटे-नीरन ॥
भाजि गयौ कढ़ि ग्यान हिए तैं, न जानि परयौ कब छोड़ि कैं धीरन ।
अन्ध न कौंन के लोचन हौंइँ, पराग-सने सरसात समीरन ॥३२॥