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पाल ले इक रोग नादाँ / गौतम राजऋषि
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पाल ले इक रोग नादाँ
रचनाकार | गौतम राजरिशी |
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प्रकाशक | शिवना प्रकाशन, सीहोर-466001 |
वर्ष | 2015 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | ग़ज़लें |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 120 |
ISBN | 978-93-81520-07-9 |
विविध | मुल्क की समस्त साहित्यिक पत्रिकाओं हंस,कादंबिनी,वागर्थ,कथादेश,आजकल,अहा ज़िंदगी,लफ़्ज़,अलाव वगैरह में ग़ज़लों का नियमित प्रकाशन |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
दो भूमिकाएँ
ग़ज़लें
- बहो अब ऐ हवा ऐसे कि ये मौसम सुलग उट्ठे / गौतम राजरिशी
- बात रुक-रुक का बढ़ी फिर हिचकियों में आ गई / गौतम राजरिशी
- देखकर दहशत निगाहों की जुबाँ बेचैन है / गौतम राजरिशी
- लम्हा गुज़र गया है कि अर्सा गुज़र गया / गौतम राजरिशी
- उजली उजली बर्फ़ के नीचे पत्थर नीला नीला है / गौतम राजरिशी
- समाचार में सनसनी होती है / गौतम राजरिशी
- ज़रा जब चाँद को थोड़ी तलब सिगरेट की उट्ठी / गौतम राजरिशी
- सजा लूँ ख़ुद को मुकम्मल बहार हो जाऊँ / गौतम राजरिशी
- तू जिसकी ताक में मचान पर यूँ बेक़रार है / गौतम राजरिशी
- चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप / गौतम राजरिशी
- झूठ बोलेगा तो ये आलम तेरा हो जायेगा / गौतम राजरिशी
- उनका एक बयान हुआ / गौतम राजरिशी
- ज़िंदगी से उम्र भर तक चलने का वादा किया / गौतम राजरिशी
- ऊँड़स ली तू ने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली / गौतम राजरिशी
- एक मुद्दत से हुये हैं वो हमारे यूँ तो / गौतम राजरिशी
- ज़रा तूफ़ान से परवाज़ का जब सामना निकला / गौतम राजरिशी
- कितने ख़्वाबों के पर टूटे कितने उड़ने वाले हैं / गौतम राजरिशी
- सुबह से ही धौंस देती गर्मियों की ये दुपहरी / गौतम राजरिशी
- कुछ मेरी ज़िंदगी को भी आयाम दे / गौतम राजरिशी
- उठ ऐ क़लम संवाद कर / गौतम राजरिशी
- ज़ुल्फ़ से लिपटा जब तौलिया हट गया / गौतम राजरिशी
- आइनों पर आज जमी है काई, लिख / गौतम राजरिशी
- बंधा धागे से था फिर वो बेचारा मचल उट्ठा / गौतम राजरिशी
- उकसाने पर हवा के आँधी से भिड़ गया है / गौतम राजरिशी
- धूप लुटा कर सूरज जब कंगाल हुआ / गौतम राजरिशी
- अब के ऐसा दौर बना है / गौतम राजरिशी
- तेज़ हवा के इक झोंके ने जब बादल का नाम लिखा / गौतम राजरिशी
- हवा ये कैसी चली माजरा ये कैसा है / गौतम राजरिशी
- शोर है क़द-काठी का, पैमाइशों की बात हो / गौतम राजरिशी
- बस गई है रग-रग में बामो-दर की ख़ामोशी / गौतम राजरिशी
- हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले / गौतम राजरिशी
- रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे / गौतम राजरिशी
- उलझ के ज़ुल्फ़ में उनकी गुमी दिशाएँ हैं / गौतम राजरिशी
- इस बात को वैसे तो छुपाया न गया है / गौतम राजरिशी
- गुज़र जाएगी शाम तकरार में / गौतम राजरिशी
- वो जब अपनी ख़बर दे है / गौतम राजरिशी
- हम पर जो असर एक ज़माने से हुआ है / गौतम राजरिशी
- ख़ुद से ही बाज़ी लगी है / गौतम राजरिशी
- वो टुकड़ा रात का बिखरा हुआ सा / गौतम राजरिशी
- सच के लिए तूने उठाया सर, भले कुछ देर से / गौतम राजरिशी
- ढीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिए / गौतम राजरिशी
- हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क़ बोते हैं / गौतम राजरिशी
- उफ़ ये कैसी कशिश ! बेबसी ? हाँ वही ! / गौतम राजरिशी
- हैं जितनी परतें यहाँ आसमान में शामिल / गौतम राजरिशी