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- तातैं हृदै-सँभारि, हरि-राधा को किन सुजस / शृंगार-लतिका / द्विज
- एक-रूप आनंद-मय, श्री राधा-ब्रजचंद / शृंगार-लतिका / द्विज
- कबहुँक आपुस मैं रचैं / शृंगार-लतिका / द्विज
- कबहुँक राधा के ललित / शृंगार-लतिका / द्विज
- बन, गिरि-उपबन जाइ, कबहुँ बहु-भाँतिन खेलहिं / शृंगार-लतिका / द्विज
- कबहुँक फागुन माँहि, दोऊ फगुवा मिलि खेलहिं / शृंगार-लतिका / द्विज
- और गाँव हरि चलत, कबहुँ राधा दुख पावैं / शृंगार-लतिका / द्विज
- रचि-रचि लीला-कलह, कबहुँ राधा रिसि ठानैं / शृंगार-लतिका / द्विज
- ता तिय तैं ह्वै क्रुधित, देति बहु-भाँति उराहन / शृंगार-लतिका / द्विज
- रचि-रचि औरैं रूप, कबहुँ अनुराग बढ़ावैं / शृंगार-लतिका / द्विज