ग़ज़लें
- दीवानों का मंज़िल का पता याद नहीं है / 'वहीद' अख़्तर
- जिस को माना था ख़ुदा ख़ाक का पैकर निकला / 'वहीद' अख़्तर
- रात भर ख़्वाब के दरिया में सवेरा देखा / 'वहीद' अख़्तर
- रूख़्सत-ए-नुत़्क ज़बानों को रिया क्या देगी / 'वहीद' अख़्तर
- सफर ही बाद-ए-सफर है तो क्यूँ न घर जाऊँ / 'वहीद' अख़्तर
- तू ग़ज़ल बन के उतर बात मुकम्मल हो जाए / 'वहीद' अख़्तर
- उन को रोज़ एक ताज़ा हीला ख़ंजर चाहिए / 'वहीद' अख़्तर
- ज़बान-ए-ख़ल्क पे आया तो इक फ़साना हुआ / 'वहीद' अख़्तर