भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गौतम राजऋषि
Kavita Kosh से
गौतम राजरिशी
www.kavitakosh.org/grajrishi
www.kavitakosh.org/grajrishi
जन्म | 10 मार्च 1975 |
---|---|
जन्म स्थान | सहरसा, बिहार, भारत |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
विविध | |
भारतीय सेना में पदाधिकारी हैं। | |
जीवन परिचय | |
गौतम राजरिशी / परिचय | |
कविता कोश पता | |
www.kavitakosh.org/grajrishi |
प्रतिनिधि ग़ज़लें
- हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले / गौतम राजरिशी
- हवा जब किसी की कहानी कहे है / गौतम राजरिशी
- है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो / गौतम राजरिशी
- तू जो मुझसे जुदा नहीं होता / गौतम राजरिशी
- देख पंछी जा रहे अपने बसेरों में / गौतम राजरिशी
- हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं / गौतम राजरिशी
- एक मुद्दत से हुए हैं वो हमारे यूँ तो / गौतम राजरिशी
- अब के ऐसा दौर बना है / गौतम राजरिशी
- वो जब अपनी ख़बर दे है / गौतम राजरिशी
- उठेंगी चिलमनें फिर हम यहाँ देखेंगे किस-किस की / गौतम राजरिशी
- तू जब से अल्लादिन हुआ / गौतम राजरिशी
- खोल ना गर मुख जरा तू, सब तेरा हो जाएगा / गौतम राजरिशी
- राह में चांद उस रोज़ चलता मिला / गौतम राजरिशी
- चीरती-सी जाती है अब ये घर की ख़ामोशी / गौतम राजरिशी
- सीखो आँखें पढ़ना साहिब / गौतम राजरिशी
- ये तेरा यूं मचलना क्या / गौतम राजरिशी
- पूछे तो कोई ये जाकर / गौतम राजरिशी
- जरा धूप फैली जो / गौतम राजरिशी
- निगाहों से ज़रा सा / गौतम राजरिशी
- कितने हाथों में यहां / गौतम राजरिशी
- उनका हरेक बयान हुआ / गौतम राजरिशी
- दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्ह खड़ी है आने को / गौतम राजरिशी
- जब से मुझको तूने छुआ है / गौतम राजरिशी
- ये बाजार सारा कहीं थम न जाये / गौतम राजरिशी
- परों का जब कभी / गौतम राजरिशी
- आईनों पे जमीं है काई लिख / गौतम राजरिशी
- ऊँड़स ली तूने जब साड़ी में गुच्छी चाभियों वाली / गौतम राजरिशी
- जल चुकी है फ़स्ल सारी पूछती अब आग क्या / गौतम राजरिशी
- एक ग़ज़ल है बनने को / गौतम राजरिशी
- जब छेड़ा मुजरिम का क़िस्सा / गौतम राजरिशी
- हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है / गौतम राजरिशी
- हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं / गौतम राजरिशी
- चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से / गौतम राजरिशी
- रात भर चाँद को यूँ रिझाते रहे / गौतम राजरिशी
- खुद से ही बाजी लगी है / गौतम राजरिशी
- चुभती-चुभती सी ये कैसी पेड़ों से है उतरी धूप / गौतम राजरिशी
- देख पंछी जा रहें अपने बसेरों में / गौतम राजरिशी
- हैं जितनी परतें यहाँ आसमान में शामिल / गौतम राजरिशी
- इस बात को वैसे तो छुपाया न गया है / गौतम राजरिशी
- बहो, अब ऐ हवा! ऐसे कि ये मौसम सुलग उट्ठे / गौतम राजरिशी
- न समझो बुझ चुकी है आग / गौतम राजरिशी