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जिनकी सुबहें नहीं भरोसे किसी सूर्य के,
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अब खुदा को कोई कहां ढूंढे
उधर मत जाना जिधर मणि-माणिकों की चकाचौंध
लिखो पालथी मार कर लिखो
वह मेरी मां ही हो सकती है
राष्ट्रहित से बढकर कोई चीज नहीं
महानता की संस्कृति
धुंध सी ये स्मृतियां हैं हमारी हवाएं नहीं कि चीरे चले जाओ
उदासी आंखों में पैठ गयी तो
आप खूब गाती हैं बाई जी
सियारों और पत्थरों को हमने हरियाली और प्रेम के गीत सुनाये
नजरों की एक ही लौ से, मिट गया अंधेरा
इस आखिरी बार उसे छू लेना चाहती है लडकी
पा-पाकर हरदम पाना कुछ रह जाता है
'1 बचपन में गांव के कुएं के चौडे चबूतरे पर सोना डरात...' के साथ नया पन्ना बनाया
अंधड उखाड देते हैं उसकी चिनगारी को
किताबों से अंटे उस कमरे पर भारी पड रह था वह लोटा
चुल्लू भर अपने ही रक्त में डूबकर दम तोड रहा है कवि
सौंदर्यकामी आत्मा
कि पागल प्रिय हैं हमें और बुद्धिमानों को हम सर नवाते हैं
'इन पठारी इलाकों में घिस कर चिकनी हो चुकी चट्टानें ...' के साथ नया पन्ना बनाया
अब भी सुंदर हैं लडकियां यहां
'संध्या हो चुकी है चांद से झड रही है धूल ... रोशनी की औ...' के साथ नया पन्ना बनाया
जैसे चिडिया नहाती है सुबह की धूप में
'1 इधर नहीं आयी तुम्हारी याद अपना चेहरा नहीं देखा इ...' के साथ नया पन्ना बनाया
समय जब भी उछालेगा उसे नीचे उछालेगा
'सांवले हरे पत्तों व सादे लाल फूलों के साथ घर-घर में ...' के साथ नया पन्ना बनाया
'सुबह के छह बज रहे हैं और कुहरा नहीं है आज कांसे की था...' के साथ नया पन्ना बनाया
'तीन-चार आत्महत्याओं व हजारों हत्याओं के बाद एक कब्...' के साथ नया पन्ना बनाया
'विवेकानंद को नहीं देखा मैंने पछाड खाते समुद्र को भ...' के साथ नया पन्ना बनाया
पहले रक्षा करते थे राम-लक्ष्मण यज्ञों की आज राम-लक्ष्मण की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए यज्ञ कर रहे साध
संस्कृतियों के रंगीन टीलों को छोड गंगा की ओर मुंह किए कहां भागा जा रहा है कउआ
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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजीत वर्मा }} <poem> दिल्ली की सड़कें कितनी विरान ह...
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