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00:04, 14 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
आलम खुर्शीद
जन्म | 11 जुलाई 1959 |
---|---|
जन्म स्थान | आरा, बिहार |
कुछ प्रमुख कृतियाँ | |
नये मौसम की तलाश (1988), ज़हरे गुल (1998), ख्यालाबाद (2003), एक दरिया ख़्वाब में (2005), कारे ज़ियाँ (2008) | |
विविध | |
जोश मलीहाबादी अवार्ड (1999), बिहार उर्दू अकादेमी अवार्ड ( दो बार 1995 और 1998 में) | |
जीवन परिचय | |
आलम खुर्शीद / परिचय |
ग़ज़लें
- अपने घर में ख़ुद ही आग लगा लेते हैं / आलम खुर्शीद
- उम्र सफर में गुजरी लेकिन शौके-सियाह्त बाकी है / आलम खुर्शीद
- एक अजब सी दुनिया देखा करता था / आलम खुर्शीद
- क़ुर्बतो के बीच जैसे फ़ासला रहने लगे / आलम खुर्शीद
- कोई मौक़ा नहीं मिलता हमें अब मुस्कुराने का / आलम खुर्शीद
- क्या अँधेरों से वही हाथ मिलाए हुए हैं / आलम खुर्शीद
- क्यों आँखें बंद कर के रस्ते में चल रहा हूँ / आलम खुर्शीद
- ख़बर सच्ची नहीं लगती नए मौसम के आने की / आलम खुर्शीद
- चारों तरफ जमीं को शादाब देखता हूँ / आलम खुर्शीद
- जब मिटटी खून से गीली हो जाती है / आलम खुर्शीद
- जिस कि दूरी वज्हे-ग़म हो जाती है / आलम खुर्शीद
- तोड़ के इसको बरसों रोना होता है / आलम खुर्शीद
- तोड़ के इसको वर्षो रोना होता है / आलम खुर्शीद
- थपक-थपक के जिन्हें हम सुलाते रहते हैं / आलम खुर्शीद
- दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है / आलम खुर्शीद
- दरियाओं पर अब्र बरसते रहते हैं / आलम खुर्शीद
- देख रहा है दरिया भी हैरानी से / आलम खुर्शीद
- नींद पलकों प धरी रहती थी / आलम खुर्शीद
- बह रहा था एक दरिया ख़्वाब में / आलम खुर्शीद
- बीच भँवर में पहले उतारा जाता है / आलम खुर्शीद
- मिल के रहने की ज़रुरत ही भुला दी गई क्या / आलम खुर्शीद
- याद आता हूँ तुम्हें सूरज निकल जाने के बाद / आलम खुर्शीद
- ये सोचा नहीं है किधर जाएँगे / आलम खुर्शीद
- रंग बिरंगे सपने रोज़ दिखा जाता है क्यों / आलम खुर्शीद
- रंग-बिरंगे ख़्वाबों के असबाब कहाँ रखते हैं हम / आलम खुर्शीद
- रेंग रहे हैं साये अब वीराने में / आलम खुर्शीद
- लुत्फ़ हम को आता है अब फ़रेब खाने में / आलम खुर्शीद
- हथेली की लकीरों में इशारा और है कोई / आलम खुर्शीद
- हम को गुमाँ था परियों जैसी शहजादी होगी / आलम खुर्शीद
- हमारे सर प ही वक़्त की तलवार गिरती है / आलम खुर्शीद
- हमेशा दिल में रहता है कभी गोया नहीं जाता / आलम खुर्शीद
- हर इक दीवार में अब दर बनाना चाहता हूँ / आलम खुर्शीद
- हर घर में कोई तहख़ाना होता है / आलम खुर्शीद
- हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हँ मैं / आलम खुर्शीद
- सियाहियों को निगलता हुआ नज़र आया / आलम खुर्शीद
- हर किसी को यहाँ मेहमाँ नहीं करते प्यारे / आलम खुर्शीद
- मैं जिधर जाऊं मेरा ख़्वाब नज़र आता है / आलम खुर्शीद
- तह-ब-तह है राज़ कोई आब की तहवील में / आलम खुर्शीद
- जाना तो बहुत दूर है महताब के आगे / आलम खुर्शीद
- जल बुझा हूँ मैं मगर सारा जहाँ ताक में है / आलम खुर्शीद
- जमा हुआ है फ़लक पे कितना ग़ुबार मेरा / आलम खुर्शीद
- किसी ख़्याल को ज़ंजीर कर रहा हूँ मैं / आलम खुर्शीद
- ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से / आलम खुर्शीद
- किस लम्हे हम तेरा ध्यान नहीं करते / आलम खुर्शीद
- कभी कभी कितना नुकसान उठाना पड़ता है / आलम खुर्शीद
- उठाए संग खड़े हैं सभी समर के लिए / आलम खुर्शीद
- जब खुली आँखें तो इन आँखों को रोना आ गया / आलम खुर्शीद