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घर-आँगन (रुबाइयाँ) / जाँ निसार अख़्तर
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घर-आँगन (रुबाइयाँ)
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रचनाकार | जाँ निसार अख़्तर |
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प्रकाशक | |
वर्ष | |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | |
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ISBN | |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- वो आयेंगे चादर तो बिछा दूँ कोरी / जाँ निसार अख़्तर
- आहट मेरे कदमों की जो सुन पाई है / जाँ निसार अख़्तर
- दुनिया की उन्हें लाज न गैरत है सखी / जाँ निसार अख़्तर
- मन था भी तो लगता था पराया है सखी / जाँ निसार अख़्तर
- नाराज़ अगर हो तो बिगड़ लो मुझ पर / जाँ निसार अख़्तर
- वो शाम को घर लौट के आएँगे तो फिर / जाँ निसार अख़्तर
- डाली की तरह चाल लचक उठती है / जाँ निसार अख़्तर
- चाल और भी दिल-नशीन हो जाती है / जाँ निसार अख़्तर
- तू देश के महके हुए आँचल में पली / जाँ निसार अख़्तर
- सीने पे पड़ा हुआ ये दोहरा आँचल / जाँ निसार अख़्तर
- कपड़ों को समेटे हुए उट्ठी है मगर / जाँ निसार अख़्तर
- कहती है इतना न करो तुम इसरार / जाँ निसार अख़्तर
- हर सुबह को गुंचे में बदल जाती है / जाँ निसार अख़्तर
- गाती हुई हाथों में ये सिंगर की मशीन / जाँ निसार अख़्तर
- नज़रों से मेरी खुद को बचाले कैसे / जाँ निसार अख़्तर
- हर एक घड़ी शाक़ गुज़रती होगी / जाँ निसार अख़्तर
- इक बार गले से उनके लगकर रो ले / जाँ निसार अख़्तर
- पानी कभी दे रही है फुलवारी में / जाँ निसार अख़्तर
- तेरे लिये बेताब हैं अरमाँ कैसे / जाँ निसार अख़्तर
- आँगन में खिले गुलाब पर जा बैठी / जाँ निसार अख़्तर
- अब तक वही बचने की सिमटने की अदा / जाँ निसार अख़्तर
- दरवाजे की खोलने उठी है ज़ंजीर / जाँ निसार अख़्तर
- क्यों हाथ जला, लाख छुपाए गोरी / जाँ निसार अख़्तर
- चुप रह के हर इक घर की परेशानी को / जाँ निसार अख़्तर
- जज़्बों की गिरह खोल रही हो जैसे / जाँ निसार अख़्तर