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हवाओं के साज़ पर/ 'अना' कासमी
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हवाओं के साज़ पर
रचनाकार | 'अना' क़ासमी |
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प्रकाशक | अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली-110030 |
वर्ष | 1999 |
भाषा | उर्दू |
विषय | ग़ज़लें |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | |
ISBN | 81-7408 |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
[ग़ज़ल-क्रम]
- बाजुओ पर दिये परवाजे़ अना दी है मुझे / ‘अना’ क़ासमी
- कभी हां कुछ मिरे भी शेर के पैकर में रहते हैं / ‘अना’ क़ासमी
- माने जो कोई बात तो इक बात बहुत है / ‘अना’ क़ासमी
- वो आसमाँ मिज़ाज कहां आसमाँ से था / ‘अना’ क़ासमी
- रहता है मशग़ला जहां बस वाह वाह का / ‘अना’ क़ासमी
- खेंची लबों ने आह के सीने पे आया हाथ / ‘अना’ क़ासमी
- ये फ़ासले भी सात समुन्दर से कम नहीं / ‘अना’ क़ासमी
- बहुत वीरान लगता है तेरी चिलमन का सन्नाटा / ‘अना’ क़ासमी
- खामोश यूं खड़े है शजर रहगुज़र के बीच / ‘अना’ क़ासमी
- शाम के साने से जब आंचल ढले / ‘अना’ क़ासमी
- क़तआत / ‘अना’ क़ासमी
- रूठना मुझसे मगर खुद को सज़ा मत देना / ‘अना’ क़ासमी
- जब कोई उसपे जान देने लगे / ‘अना’ क़ासमी
- किससे पूछूं ऐ फ़लक़ हालात का सूरज है कौन / ‘अना’ क़ासमी
- जा चुका है सब तो अब क्या जाएगा / ‘अना’ क़ासमी
- ज़ख़्म महकेंगे तो आहों में असर भी आएगा / ‘अना’ क़ासमी
- कजकुलाही से न मतलब रेशमी शालों से है / ‘अना’ क़ासमी
- दोज़ख सी ये दुनिया भी सुहानी है कि तुम हो / ‘अना’ क़ासमी
- वाक़या है या के तेरा जिक्र अफ़सानों में है / ‘अना’ क़ासमी
- मसलहत खे़ज़ ये रियाकारी / ‘अना’ क़ासमी
- क़तआत / ‘अना’ क़ासमी
- मिरी ख़ातिर ये नादानी करोगे / ‘अना’ क़ासमी
- गेसू घटा हैं बर्क़ नज़र में समाई है / ‘अना’ क़ासमी
- खिल उठा फूल सा बदन उसका / ‘अना’ क़ासमी
- कब नहीं खूने जिगर छिड़का तिरे उनवान पर / ‘अना’ क़ासमी
- एक जानिब से कहां होती हैं सारी ग़लतियाँ / ‘अना’ क़ासमी
- कौन बातों में आता है पगले / ‘अना’ क़ासमी
- किया है शायरी का शौक़ फिर क्या यार शरमाना / ‘अना’ क़ासमी
- मिरी तबाही का वो ही इरादा रखते हैं / ‘अना’ क़ासमी
- आँखों में पढ़ रहा है मुहब्बत के बाब को / ‘अना’ क़ासमी
- रमूज़े-रंग खुशबू की ज़बां को कौन समझेगा / ‘अना’ क़ासमी
- गुल जो दामन में समेटे हैं शरर देख लिया / ‘अना’ क़ासमी
- क़तअ़ात / ‘अना’ क़ासमी
- उस शख़्स की अजीब थीं जादू बयानियाँ / ‘अना’ क़ासमी
- ये जुमला बहुत पहुंचे फ़क़ीरों से कहा है / ‘अना’ क़ासमी
- शहरे दिल हो के क़रिया-ए-जां हो / ‘अना’ क़ासमी
- ये भयानक सियाह रात निकाल / ‘अना’ क़ासमी
- उसकी रहमत का इक सहाब उतरे / ‘अना’ क़ासमी
- तख़य्युलात की तीरा-शबी भी लेता जा / ‘अना’ क़ासमी
- है कोई जो इस गुरूरे हुस्न का सौदा करे / ‘अना’ क़ासमी
- अश्क़ इतने हमने पाले आँख में / ‘अना’ क़ासमी
- ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है / ‘अना’ क़ासमी
- कभी वो शोख़ मिरे दिल की अंजुमन तक आए/ ‘अना’ क़ासमी
- क़तआत/ ‘अना’ क़ासमी
- मुझे देखा तो वो कुछ इस तरह से मुस्कुराए हैं/ ‘अना’ क़ासमी
- चुप से नहीं खुले हैं न ही तेरी हाँ खुले/ ‘अना’ क़ासमी
- मरहले आयेंगे वो भी ज़िन्दगी के दरमियां/ ‘अना’ क़ासमी
- मग़मूम शमअ़ राख पतंगे उदास रात/ ‘अना’ क़ासमी
- सुकूते-शब से न सूरज के सर उठाने से / ‘अना’ क़ासमी
- कितना दिलचस्प है हर बात पे बलखाना तिरा/ ‘अना’ क़ासमी
- ज़रा सा जूठा किया उसने फिर पिया उसने / ‘अना’ क़ासमी
- न शराफ़तों का फ़रेब दे, न इनायतों को बचा के रख/ ‘अना’ क़ासमी
- नाजुक समाअ़तों पे शररबार हो गये / ‘अना’ क़ासमी
- करेंगे कोहे अना को भी हम उबूर चलें / ‘अना’ क़ासमी
- क़तआत/ ‘अना’ क़ासमी
- कहनी न पड़े बात मुझे अपनी ज़बाँ से / ‘अना’ क़ासमी
- यूं तो अशआर में कुछ और भी ग़म होते हैं / ‘अना’ क़ासमी
- इस क़दर नाराज़ क्यों हो इक ज़रा सी बात पर/ ‘अना’ क़ासमी
- आखि़रश आपका कहा निकला/ ‘अना’ क़ासमी
- यूं हुई ताबीर शर्मिन्दा खुद अपने ख़्वाब पर/ ‘अना’ क़ासमी
- ऐसे कुछ लोग भी इस राह में अक्सर ठहरे/ ‘अना’ क़ासमी
- दिल दिया है तो एतबार भी कर / ‘अना’ क़ासमी
- ख़बर है दोनों को दोनों से दिल लगाऊँ मैं/ ‘अना’ क़ासमी
- क़ासमी नज़रें मिला के आप ज़रा फिर वही कहें / ‘अना’ क़ासमी
- लहजे में कुछ खुमार सा बाक़ी था रात का/ ‘अना’ क़ासमी
- मैं भी कह दूं जो मिरी बात न टाली जाए/ ‘अना’ क़ासमी
- यूं इस दिल-नादां से रिश्तों का भरम टूटा/ ‘अना’ क़ासमी
- खुद की पहचान भी गंवा बैठे/ ‘अना’ क़ासमी
- बुझ गया जब दिल तो फिर क्या चश्मे-तर का सोचना/ ‘अना’ क़ासमी
- ज़िन्दगी में सराब रहने दे / ‘अना’ क़ासमी
- दिल की हर धड़कन है बत्तिस मील में / ‘अना’ क़ासमी
- ज़िन्दगी में जो लिया जो भी दिया लिक्खा गया / ‘अना’ क़ासमी