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समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
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समंदर ब्याहने आया नहीं है
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रचनाकार | जहीर कुरैशी |
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प्रकाशक | अयन प्रकाशन 1/20 महरौली, नई दिल्ली-110030 |
वर्ष | 1992 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | ग़ज़ल संग्रह |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 88 |
ISBN | |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- जब भी औरत ने अपनी सीमा रेखा को पार किया / जहीर कुरैशी
- धर्म-युद्ध की बात न करना,धर्म-युद्ध आसान नहीं / जहीर कुरैशी
- जो बेहद मुश्किल लगता था उसको भी आसान किया / जहीर कुरैशी
- जिधर कामनाएँ थीं, वे अपने मन के आधीन हुए / जहीर कुरैशी
- न मुझसे पूछिए उसके सुभाव की बातें / जहीर कुरैशी
- वो घुप अँधेरे में भी ये कमाल कर देखे / जहीर कुरैशी
- पैर अपने थे मगर उनके इशारों पर चले / जहीर कुरैशी
- नींद भी देता है सपने भी दिखा देता है / जहीर कुरैशी
- जिसको अपना कह सकूँ बस्ती में ऐसा घर न था / जहीर कुरैशी
- फँस गया है आजकल वो ऐसे सन्देहों के बीच / जहीर कुरैशी
- आदमी की कामनाओं की कोई सीमा नहीं / जहीर कुरैशी
- आग जैसे ज्वलन्त प्रश्नों में / जहीर कुरैशी
- लोग रण में उतर भी जाते हैं / जहीर कुरैशी
- एकान्त काटने लगे ऐसा नहीं देखा / जहीर कुरैशी
- पीर पढ़नी है तो फिर आँखों के अन्दर देखो / जहीर कुरैशी
- उलझनें तो हैं सभी के साथ / जहीर कुरैशी
- है मुझे उस आदमी के दोगले स्वर का पता / जहीर कुरैशी
- भोर की अपनी जगह , अपनी है दुपहर की जगह / जहीर कुरैशी
- कैसे बोलूँ मैं किसी के सामने / जहीर कुरैशी
- अभी तो फ़ैसला होना नहीं है / जहीर कुरैशी
- किताबों में तो सब कुछ ही लिखा है / जहीर कुरैशी
- सिर्फ़ चलना ही नहीं काफ़ी, ओ चलने वाले / जहीर कुरैशी
- जिन्हें उड़ना है वो उड़कर रहेंगे / जहीर कुरैशी
- इस कदर भाव-विह्वल हुए / जहीर कुरैशी
- अपना अस्तित्व खो कर बनी / जहीर कुरैशी
- नंगे पैर कलाकारों को ‘क्लब’ से बाहर कर देते हैं / जहीर कुरैशी
- सोचिए कुछ और हो जाता है कुछ / जहीर कुरैशी
- पंछियों को पर नहीं मिलते / जहीर कुरैशी
- ‘भितरघातें’ मुझे करना नहीं आता / जहीर कुरैशी
- मिल गया अवसर तो सीमा पर कर जाते हैं लोग / जहीर कुरैशी
- क्या सही और क्या ग़लत है यहाँ / जहीर कुरैशी
- अनुभवों की पाठशाला ने सिखाया है बहुत / जहीर कुरैशी
- डबडबाई आँख में आँसू की कण-संख्या न देख / जहीर कुरैशी
- जीत कर भी पराजित हुए / जहीर कुरैशी
- चलिए मान लिया यह भी सायास ही है / जहीर कुरैशी
- ख़ूबसूरत ‘तितलियों’ से डर लगा / जहीर कुरैशी
- दूर तक पानी ही पानी है / जहीर कुरैशी
- मुखर होने लगीं अनबन की बातें / जहीर कुरैशी
- बीवी-बच्चे हैं, एक घर भी है / जहीर कुरैशी
- स्वप्न देखे या न देखे स्वप्न फल देखे गए/ जहीर कुरैशी
- भोर ले जाएगी अथवा दोपहर ले जाएगी / जहीर कुरैशी
- जो बढ़ते हैं कलाकारी से आगे / जहीर कुरैशी
- कम से कम ये बात मेरी अक़्ल से बाहर नहीं / जहीर कुरैशी
- दिल को जीता नहीं प्यार से / जहीर कुरैशी
- वो जाकर क्यों नहीं लौटा अभी तक / जहीर कुरैशी
- हर क़दम पर ही सियासत है इधर से देखिए / जहीर कुरैशी
- स्वस्थ रहने की कड़ी तैयारियों के साथ / जहीर कुरैशी
- न मुझसे पूछ सियासत की चाल को लेकर/ जहीर कुरैशी
- कंठ रुँधता है, तो पल दो पल ठहरकर, बात कर / जहीर कुरैशी
- हमें इसका तो पहले ही पता है/ जहीर कुरैशी
- है न वो कद से बड़ा और न कपड़ों से बड़ा / जहीर कुरैशी
- युवा सरिता ने सागर से कहा कुछ / जहीर कुरैशी
- जिसको कोई शोक नहीं है उसको शोक मनाना है / जहीर कुरैशी
- हादसा यह भी मेरे संग हुआ / जहीर कुरैशी
- क्रोध रोके रुका ही नहीं / जहीर कुरैशी
- गर्म कम्बल नर्म बिस्तर से निकल कर देख तो / जहीर कुरैशी
- पाँव अपने जिधर चल पड़े / जहीर कुरैशी
- हम अपने मन के मालिक थे हम बन्धन से दूर रहे / जहीर कुरैशी
- शहर में हर कहीं मेला दिखाई देता है / जहीर कुरैशी
- जो भीख माँग रहा है वही भिखारी है / जहीर कुरैशी
- लोग सन्देह करते रहे / जहीर कुरैशी
- जुलूसों में मिले श्रीहीन चेहरे / जहीर कुरैशी
- वे अपने भाषण द्वारा नफ़रत फैलाने आते हैं / जहीर कुरैशी
- घर के अंतिम बरतनों को देखकर / जहीर कुरैशी
- विडंबना में भी उसी को भला समझता रहा / जहीर कुरैशी
- व्यक्त होने की बहुत क्रोध ने तैयारी की / जहीर कुरैशी
- प्रश्न जब भी उछाले गए / जहीर कुरैशी
- इतना ज़्यादा उधार रहता है / जहीर कुरैशी
- रोना भी अगर चाहूँ तो रोने नहीं देते / जहीर कुरैशी
- जो चल पड़ा है अँधेरे में रोशनी बन कर / जहीर कुरैशी
- लोग जब भी असावधान हुए / जहीर कुरैशी
- बाल-बच्चे सयाने हुए / जहीर कुरैशी
- जो उड़ते हैं उड़ाने साथ रहती हैं / जहीर कुरैशी
- घर की तू-तू मैं-मैं, बाहर के लोगों तक आ पहुँची / जहीर कुरैशी
- हिरनी को जब याद सताती है अपने मृग-छोने की / जहीर कुरैशी
- कुछ तो छिपा रहे हो तुम, अपने मन की सच्चाई से / जहीर कुरैशी
- उम्र-भर मित्रताओं में उलझे रहे / जहीर कुरैशी
- उम्र के साथ मौसम बदलते रहे / जहीर कुरैशी