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वंशी और मादल / ठाकुरप्रसाद सिंह

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वंशी और मादल
१९५१ में पहली बार मेरे कुछ गीत प्रकाश में आए, तब उनमें श्री अज्ञेय को हिन्दी कविता के नए वातायन खुलते दीख पड़े थे । इसके बाद के वर्ष प्रयोगवाद तथा नई कविता की चहल-पहल के वर्ष थे । उन दिनों गीतों के साथ मुझे प्रतीक्षा करने की स्थिति में वर्षों खड़ा रहना पड़ा । आलोचकों को इन वर्षों में उनकी निज की दुविधा के चलते काफ़ी कष्ट झेलने पड़े । नित्य उन्हें अपने वक्तव्य बदलने पड़ते थे । कल जिन्हें ठीक कहा, आज उन्हीं से साफ़-साफ़ बातें करने की स्थिति में आ गए । आज जिनसे साफ़ बातें कीं, कल उन्हीं का पुनर्मूल्यांकन करने को सन्नद्ध हो गए । प्रयोगवाद अथवा नई कविता के स्वर आज रास्ते के, दूर चले गए संगीत की तरह मद्धिम पड़ गए हैं । आलोचक एक बार फिर पुनर्मूल्यांकन की स्थिति में आ गए हैं । कल जिन गीतों को रोमांटिक अवशेष कहकर पृष्ठभूमि में फेंक दिया गया था, उन्हें आज हिन्दी कविता का स्वाभाविक विकास मानकर नए सिरे से स्थापित किया जा रहा है । इन गीतों के माध्यम से मैं पिछले वर्षों में स्वयं अपने भीतर की जड़ता से संघर्ष करता रहा हूँ ।संथाल परगने में नौकरी खोजने गया था, तब तक मेरी कविता का एक युग समाप्त हो चुका था । मैं अपने ही दुहराव से भयभीत था और किसी नए उद्वेग की खोज में था । उस समय मेरे और साथी इस जड़ता से त्रस्त होकर पश्चिम की ओर चले गए, मुझे परिस्थितियाँ पूरब के आदिवासियों के देश में ढकेल ले गईं । यूरोप के प्रसिद्ध चित्रकार गोगां को जिस आदिम (प्रिमिटिव) उद्वेग के लिए टाहिटी द्वीप में प्रवास करना पड़ा, वह मुझे संथालों के बीच अनायास ही मिल गया । रोज़ी छूटे तो पच्चीस वर्ष होने को आए, पर वह आदिम उद्वेग छोड़ने की स्थिति में मैं आज भी नहीं आ पाया हूँ ।
रचनाकार ठाकुरप्रसाद सिंह
प्रकाशक पराग प्रकाशन,3/114, कर्ण गली, विश्वासनगर, शाहदरा, दिल्ली-110032
वर्ष द्वितीय संस्करण : 1979
भाषा हिन्दी
विषय
विधा
पृष्ठ 68
ISBN
विविध
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