चांदनी का दु:ख
रचनाकार | जहीर कुरैशी |
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प्रकाशक | पराग प्रकाशन,1/114,कर्ण गली,विश्वासनगर,शाहदरा,दिल्ली-32 |
वर्ष | 1986 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | ग़ज़ल संग्रह |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 80 |
ISBN | |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
- किस्से नहीं हैं ये किसी बिरहन की पीर के / जहीर कुरैशी
- धूप, मिट्टी हवा को भूल गए / जहीर कुरैशी
- अंग -प्रत्यंग को हिला डाला / जहीर कुरैशी
- विष असर कर रहा है किश्तों में / जहीर कुरैशी
- आपका मेरा हर किसी का दु:ख / जहीर कुरैशी
- स्वप्न तो सूर्य की किरन का है / जहीर कुरैशी
- रखो दफ्तर की बातें सिर्फ दफ्तर तक / जहीर कुरैशी
- जिस जुबाँ पर चढ़ गयी अधिकार की भाषा / जहीर कुरैशी
- जिन्दगी आहत है आँगन में / जहीर कुरैशी
- सिर से ऊपर गुज़र गया पानी / जहीर कुरैशी
- बन्द पुस्तक को खोलती है हवा / जहीर कुरैशी
- कंठ को तैयार करना सीख जाते हैं / जहीर कुरैशी
- ‘रेप’ बड़की हुई, मगर, घर में / जहीर कुरैशी
- बातों से, सिर्फ़ बातों से ऐसा किया गया / जहीर कुरैशी
- यहाँ हर व्यक्ति है डर की कहानी / जहीर कुरैशी
- यात्रा है तो मन मगन भी है / जहीर कुरैशी
- मुश्किल से मुझको आपके घर का पता चला / जहीर कुरैशी
- हर कहानी परेशान है / जहीर कुरैशी
- पाँव फिर उम्र भर नहीं लौटे / जहीर कुरैशी
- ‘बस’ की लम्बी कतार में शामिल / जहीर कुरैशी
- ये अचानक क्या हुआ बाज़ार में / जहीर कुरैशी
- जिनके शीशे के घर रहे थे वहाँ / जहीर कुरैशी
- अधिकतर लोग गुज़रे वक्त से लिपटे रहे आखिर / जहीर कुरैशी
- घिरता है शाम होते ही डर , नींद के लिए / जहीर कुरैशी
- पिष्टपेषण क्यों करें अब और / जहीर कुरैशी
- लक्ष्य तक का मेरा सिलसिला ठोस है / जहीर कुरैशी
- आजतक शेष हैं निशान बहुत / जहीर कुरैशी
- युद्ध दर्पण और पत्थर में हुआ / जहीर कुरैशी
- सत्य के तन के कई टुकड़े हुए / जहीर कुरैशी
- बर्फ की देह जल रही है कहीं / जहीर कुरैशी*
- मैंने चाहा तो मुझको खुशी ही मिली / जहीर कुरैशी
- निश्चय के साथ घर से निकलना कठिन तो है / जहीर कुरैशी
- रूढ़ियों का किला पुराना है / जहीर कुरैशी
- किसी निष्कर्ष के घर तक नहीं पहुँचे / जहीर कुरैशी
- वो स्वयं से मिला-जुला ही नहीं / जहीर कुरैशी
- मुठ्ठियों में रेत भर कर चुप रहे / जहीर कुरैशी
- ना-नुकर में तमाम सड़के हैं / जहीर कुरैशी
- ये शहर कब रुका है सड़कों पर / जहीर कुरैशी
- यार, जब खुशबू नहीं है रातरानी में / जहीर कुरैशी
- क्या करेगा बहुत बड़ा हो कर / जहीर कुरैशी
- यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों / जहीर कुरैशी
- हो गए हैं लक्ष्य सब ओझल विवादों में / जहीर कुरैशी
- दो रोटी के अलावा, चार की बातें नहीं करते / जहीर कुरैशी
- घर के अन्दर देखकर या घर के बाहर देखकर / जहीर कुरैशी
- एक-से वक्तव्य ,नारे एक-से / जहीर कुरैशी
- कद में जो लोग थे बहुत ऊँचे / जहीर कुरैशी
- लोग जितने मिले- ‘स्वर’ बदलते हुए / जहीर कुरैशी
- एक पागल भीड़ के हिंसक स्वरों के बीच / जहीर कुरैशी
- है उसकी आँखों में नफ़रत या प्यार, पढ़ लेना / जहीर कुरैशी
- भूख जैसे सवाल ,मत पूछो / जहीर कुरैशी
- नहीं अब शेष स्पर्धा उड़ानों में / जहीर कुरैशी
- अम्ल होते रहे क्षार होते रहे / जहीर कुरैशी
- हम बीस तीस सालों में कितने बदल गए / जहीर कुरैशी
- क्या कहे अखबार वालों से व्यथा औरत / जहीर कुरैशी
- उम्र के साथ थकी देह, हुआ मन बूढ़ा / जहीर कुरैशी
- झाँक कामुक-मना की आँखों में / जहीर कुरैशी
- लोग झरते फूल-पातों पर हँसे / जहीर कुरैशी
- बंदिशों की सज़ा से डरता है / जहीर कुरैशी
- जंगलों से चले जंगली जानवर / जहीर कुरैशी
- जब हमारे हौसले, उस हंस के पर से मिले / जहीर कुरैशी
- पाँव नंगे और जलती दोपहर है सामने / जहीर कुरैशी
- हंस का इम्तहान बाकी है / जहीर कुरैशी
- कितने सपनों को आँजकर आया / जहीर कुरैशी
- दृश्य उड़ते विमान से देखा / जहीर कुरैशी
- महान लोगों ने उसको महान कर डाला / जहीर कुरैशी