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"श्रीकृष्णबाल माधुरी / सूरदास" के अवतरणों में अंतर

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(New page: ===सूरदास के पद : श्रीकृष्ण बालचरित=== '''हरि पालनैं झुलावै'''<Br/> जसोदा हरि पाल...)
 
(सूरदास के पद : श्रीकृष्ण बालचरित)
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===सूरदास के पद : श्रीकृष्ण बालचरित===  
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|नाम=लहर
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|रचनाकार=[[सूरदास ]]
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'''हरि पालनैं झुलावै'''<Br/>
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* [[आदि सनातन, हरि अबिनासी / सूरदास]]
 
+
* [[प्रात भयौ, जागौ गोपाल / सूरदास]]
जसोदा हरि पालनैं झुलावै। <Br/>
+
* [[भावती लीला, अति पुनीत मुनि भाषी  / सूरदास]]
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥<Br/>
+
* [[जागौ, जागौ हो गोपाल  / सूरदास]]
मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।<Br/>
+
* [[हरि मुख देखि हो बसुदेव / सूरदास]]
तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥<Br/>
+
* [[गोकुल प्रगट भए हरि आइ / सूरदास]]
कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।<Br/>
+
* [[उठीं सखी सब मंगल गाइ / सूरदास]]
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥<Br/>
+
* [[हौं इक नई बात सुनि आई / सूरदास]]
इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै। <Br/>
+
* [[हौं सखि, नई चाह इक पाई / सूरदास]]
जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥<Br/>
+
* [[ब्रज भयौ महर कैं पूत, जब यह बात सुनी / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[आजु नंद के द्वारैं भीर / सूरदास]]
राग घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी मुख चूमने लगती हैं। ऐसा करते हुए वह जो मन में आता है वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है। इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फड़काते हैं। (यह सामान्य-सी बात है कि जब बालक उनींदा होता है तब उसके मुखमंडल का भाव प्राय: ऐसा ही होता है जैसा कन्हैया के मुखमंडल पर सोते समय जाग्रत हुआ।) जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्‍‌नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बड़भागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।
+
* [[बहुत नारि सुहाग-सुंदरि और घोष कुमारी / सूरदास]]
 
+
* [[आजु बधायौ नंदराइ कैं, गावहु मंगलचार / सूरदास]]
<Br/><Br/>
+
* [[धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे / सूरदास]]
 
+
* [[सोभा-सिंधु न अंत रही री / सूरदास]]
'''मुख दधि लेप किए'''
+
* [[आजु हो निसान बाजै, नंद जू महर के / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[आजु हो बधायौ बाजै नंद गोप-राइ कै / सूरदास]]
 
+
* [[आजु बधाई नंद कैं माई / सूरदास]]
सोभित कर नवनीत लिए। <BR/>
+
* [[आजु गृह नंद महर कैं बधाइ / सूरदास]]
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥ <BR/>
+
* [[आजु तौ बधाइ बाजै मंदिर महर के / सूरदास]]
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए। <BR/>
+
* [[कनक-रतन-मनि पालनौ, गढ़्यौ काम सुतहार / सूरदास]]
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥ <BR/>
+
* [[जसोदा हरि पालनैं झुलावै / सूरदास]]
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए। <BR/>
+
* [[पलना स्याम झुलावती जननी / सूरदास]]
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥ <BR/>
+
* [[हरि किलकत जसुदा की कनियाँ / सूरदास]]
 
+
* [[सुत-मुख देखि जसोदा फूली / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[कन्हैया हालरु रे / सूरदास]]
 
+
* [[नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री / सूरदास]]
राग बिलावल पर आधारित इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं। एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है। मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं। उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पड़े कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ़ जाती है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है।
+
* [[कन्हैया हालरौ हलरोइ / सूरदास]]
 
+
* [[कर पग गहि, अँगूठा मुख / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[चरन गहे अँगुठा मुख मेलत / सूरदास]]
 
+
* [[जसुदा मदन गोपाल सोवावै / सूरदास]]
'''कबहुं बढ़ैगी चोटी'''
+
* [[अजिर प्रभातहिं स्याम कौं, पलिका पौढ़ाए / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[हरषे नंद टेरत महरि / सूरदास]]
 
+
* [[महरि मुदित उलटाइ कै मुख चूमन लागी / सूरदास]]
मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी।
+
* [[जो सुख ब्रज मैं एक घरी / सूरदास]]
 
+
* [[यह सुख सुनि हरषीं ब्रजनारी / सूरदास]]
किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥
+
* [[जननी देखि, छबि बलि जाति / सूरदास]]
 
+
* [[जसुमति भाग-सुहागिनी, हरि कौं सुत जानै / सूरदास]]
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।
+
* [[गोद लिए हरि कौं नँदरानी / सूरदास]]
 
+
* [[नंद-घरनि आनँद भरी, सुत स्याम खिलावै / सूरदास]]
काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥
+
* [[नान्हरिया गोपाल लाल, तू बेगि बड़ौ किन होहिं / सूरदास]]
 
+
* [[जसुमति मन अभिलाष करै / सूरदास]]
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।
+
* [[हरि किलकत जसुमति की कनियाँ / सूरदास]]
 
+
* [[जननी बलि जाइ हालक हालरौ गोपाल / सूरदास]]
सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥
+
* [[हरि कौ मुख माइ, मोहि अनुदिन अति भावै / सूरदास]]
 
+
* [[लालन, वारी या मुख ऊपर / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[आजु भोर तमचुर के रोल / सूरदास]]
 
+
* [[खेलत नँद -आँगन गोबिंद / सूरदास]]
रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत सरस है। बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ (बलराम) जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी। मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे। अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले.. अरी मैया! मेरी यह चोटी कब बढ़ेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया। लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है। तू तो कहती थी कि दूध पीने से मेरी यह चोटी दाऊ की चोटी जैसी लंबी व मोटी हो जाएगी। संभवत: इसीलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढ़कर नागिन जैसी लंबी हो जाए। कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है। इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती। इतना कहकर श्रीकृष्ण रूठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण-बलराम की जोड़ी मन को सुख पहुंचाने वाली है।
+
* [[खीजत जात माखन खात / सूरदास]]
 
+
* [[बिहरत गोपाल राइ, मनिमय रचे अँगनाइ / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[बाल बिनोद खरो जिय भावत / सूरदास]]
 
+
* [[मैं बलि स्याम, मनोहर नैन / सूरदास]]
'''दाऊ बहुत खिझायो'''
+
* [[किलकत कान्ह घुटुरुवनि आवत / सूरदास]]
 
+
* [[नंद-धाम खेलत हरि डोलत / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[धनि जसुमति बड़भागिनी, लिए कान्ह खिलावै / सूरदास]]
 
+
* [[हरिकौ बिमल जस गावति गोपंगना / सूरदास]]
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
+
* [[चलन चहत पाइनि गोपाल / सूरदास]]
 
+
* [[ सिखवति चलन जसोदा मैया / सूरदास]]
मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥
+
* [[भावत हरि कौ बाल-बिनोद / सूरदास]]
 
+
* [[सूच्छम चरन चलावत बल करि / सूरदास]]
कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।
+
* [[बाल-बिनोद आँगन की डोलनि / सूरदास]]
 
+
* [[गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत / सूरदास]]
पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥
+
* [[कान्ह चलत पग द्वै-द्वै धरनी / सूरदास]]
 
+
* [[चलत स्यामघन राजत, बाजति पैंजनि पग-पग चारु मनोहर / सूरदास]]
गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
+
* [[भीतर तैं बाहर लौं आवत / सूरदास]]
 
+
* [[चलत देखि जसुमति सुख पावै / सूरदास]]
चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥
+
* [[सो बल कहा भयौ भगवान / सूरदास]]
 
+
* [[लहर2 / सूरदास]]
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।
+
* [[देखो अद्भुत अबिगत की गति, कैसौ रूप धर्‌यौ है / सूरदास]]
 
+
* [[साँवरे बलि-बलि बाल-गोबिंद / सूरदास]]
मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥
+
* [[हरि हरि हँसत मेरौ माधैया / सूरदास]]
 
+
* [[हरि हरि हँसत मेरौ माधैया / सूरदास]]
सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।
+
* [[झुनक स्याम की पैजनियाँ / सूरदास]]
 
+
* [[चलत लाल पैजनि के चाइ / सूरदास]]
सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥
+
* [[मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री / सूरदास]]
 
+
* [[जब तैं आँगन खेलत देख्यौ, मैं जसुदा कौ पूत री / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[जसोदा, तेरौ चिरजीवहु गोपाल / सूरदास]]
 
+
* [[मैं मोही तेरैं लाल री / सूरदास]]
सूरदास जी की यह रचना राग गौरी पर आधारित है। यह पद भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीला से संबंधित पहलू का सजीव चित्रण है। बलराम श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। गौरवर्ण बलराम श्रीकृष्ण के श्याम रंग पर यदा-कदा उन्हें चिढ़ाया करते थे। एक दिन कन्हैया ने मैया से बलराम की शिकायत की। वह कहने लगे कि मैया री, दाऊ मुझे ग्वाल-बालों के सामने बहुत चिढ़ाता है। वह मुझसे कहता है कि यशोदा मैया ने तुझे मोल लिया है। क्या करूं मैया! इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता। वह मुझसे बार-बार कहता है कि तेरी माता कौन है और तेरे पिता कौन हैं? क्योंकि नंदबाबा तो गोरे हैं और मैया यशोदा भी गौरवर्णा हैं। लेकिन तू सांवले रंग का कैसे है? यदि तू उनका पुत्र होता तो तुझे भी गोरा होना चाहिए। जब दाऊ ऐसा कहता है तो ग्वाल-बाल चुटकी बजाकर मेरा उपहास करते हैं, मुझे नचाते हैं और मुस्कराते हैं। इस पर भी तू मुझे ही मारने को दौड़ती है। दाऊ को कभी कुछ नहीं कहती। श्रीकृष्ण की रोष भरी बातें सुनकर मैया यशोदा रीझने लगी हैं। फिर कन्हैया को समझाकर कहती हैं कि कन्हैया! वह बलराम तो बचपन से ही चुगलखोर और धूर्त है। सूरदास कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण मैया की बातें सुनकर भी नहीं माने तब यशोदा बोलीं कि कन्हैया मैं गउओं की सौगंध खाकर कहती हूँ कि तू मेरा ही पुत्र है और मैं तेरी मैया हूँ।
+
* [[कल बल कै हरि आरि परे / सूरदास]]
 
+
* [[जब दधि-मथनी टेकि अरै / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[जब दधि-रिपु हाथ लियौ / सूरदास]]
 
+
* [[जब मोहन कर गही मथानी / सूरदास]]
'''मैं नहिं माखन खायो'''
+
* [[नंद जू के बारे कान्ह, छाँड़ि दै मथनियाँ / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[जसुमति दधि मथन करति / सूरदास]]
 
+
* [[आनँद सौं, दधि मथति जसोदा, घमकि मथनियाँ घूमै / सूरदास]]
मैया! मैं नहिं माखन खायो।
+
* [[त्यौं-त्यौं मोहन नाचै ज्यौं-ज्यौं रई-घमरकौ होइ / सूरदास]]
 
+
* [[प्रात समय दधि मथति जसोदा / सूरदास]]
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
+
* [[गोद खिलावति कान्ह सुनी, बड़भागिनि हो नँदरानी / सूरदास]]
 
+
* [[कहन लागे मोहन मैया-मैया / सूरदास]]
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
+
* [[माखन खात हँसत किलकत हरि / सूरदास]]
 
+
* [[बेद-कमल-मुख परसति जननी / सूरदास]]
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
+
* [[सोभा मेरे स्यामहि पै सोहै / सूरदास]]
 
+
* [[बाल गुपाल ! खेलौ मेरे तात / सूरदास]]
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
+
* [[पलना झूलौ मेरे लाल पियारे / सूरदास]]
 
+
* [[क्रीड़त प्रात समय दोउ बीर / सूरदास]]
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
+
* [[कनक-कटोरा प्रातहीं, दधि घृत सु मिठाई / सूरदास]]
 
+
* [[गोपालराइ दधि माँगत अरु रोटी / सूरदास]]
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
+
* [[हरि-कर राजत माखन-रोटी / सूरदास]]
 
+
* [[दोउ भैया मैया पै माँगत / सूरदास]]
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
+
* [[तनक दै री माइ, माखन तनक दै री माइ / सूरदास]]
 
+
* [[नैकु रहौ, माखन द्यौं तुम कौं / सूरदास]]
<BR/> <BR/>
+
* [[बातनिहीं सुत लाइ लियौ / सूरदास]]
राग रामकली में बद्ध यह सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद है। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कन्हैया ग्वालिनों के घरों में जा-जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा ने उन्हें देख भी लिया। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।
+
* [[दधि-सुत जामे नंद-दुवार / सूरदास]]
जब यशोदा ने देख लिया कि कान्हा ने माखन खाया है तो पूछ ही लिया कि क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब श्रीकृष्ण अपना पक्ष किस तरह मैया के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, यही इस पद की विशिष्टता है। कन्हैया बोले.. मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इन ग्वाल-बालों ने ही बलात् मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले कि मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा है और मेरे हाथ कितने छोटे-छोटे हैं। इन छोटे हाथों से मैं कैसे छींके को उतार सकता हूँ। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा रह गया था उसे पीछे छिपा लिया। कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन मुस्कराने लगीं और छड़ी फेंककर कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदास कहते हैं कि यशोदा को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है। श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) ने बाल लीलाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्त्‍‌वपूर्ण है।
+
* [[कजरी कौ पय पियहु लाल,जासौं तेरी बेनि बढ़ै / सूरदास]]
 
+
* [[मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[हरि अपनैं आँगन कछु गावत / सूरदास]]
 
+
* [[आजु सखी, हौं प्रात समय दधि मथन उठी अकुलाइ / सूरदास]]
'''हरष आनंद बढ़ावत'''
+
* [[बलि-बलि जाउँ मधुर सुर गावहु / सूरदास]]
 
+
* [[पाहुनी, करि दै तनक मह्यौ / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ / सूरदास]]
 
+
* [[जसुमति जबहिं कह्यौ अन्वावन / सूरदास]]
हरि अपनैं आंगन कछु गावत।
+
* [[ठाढ़ी अजिर जसोदा अपनैं / सूरदास]]
 
+
* [[किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं / सूरदास]]
तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥
+
* [[(आछे मेरे) लाल हो, ऐसी आरि कीजै / सूरदास]]
 
+
* [[बार-बार जसुमति सुत बोधति / सूरदास]]
बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।
+
* [[ऐसौ हठी बाल गोविन्दा / सूरदास]]
 
+
* [[मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं / सूरदास]]
कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥
+
* [[मैया री मैं चंद लहौंगौ / सूरदास]]
 
+
* [[लै लै मोहन ,चंदा लै / सूरदास]]
माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।
+
* [[तुव मुख देखि डरत ससि भारी / सूरदास]]
 
+
* [[जसुमति लै पलिका पौढ़ावति / सूरदास]]
कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥
+
* [[सुनि सुत, एक कथा कहौं प्यारी / सूरदास]]
 
+
* [[नाहिनै जगाइ सकत, सुनि सुबात सजनी / सूरदास]]
दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
+
* [[जागिए, व्रजराज-कुँवर, कमल-कुसुम फूले / सूरदास]]
 
+
* [[प्रात समय उठि, सोवत सुत कौ बदन उघार्‌यौ नंद / सूरदास]]
सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥
+
* [[जागिए गोपाल लाल, आनँद-निधि नंद-बाल / सूरदास]]
 
+
* [[उठौ नँदलाल भयौ भिनसार / सूरदास]]
राग रामकली में आबद्ध इस पद में सूरदास ने कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता है गाते हैं। वह छोटे-छोटे पैरों से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं। कभी वह भुजाओं को उठाकर काली-श्वेत गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंदबाबा को पुकारते हैं और कभी घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोड़ा-सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना ही प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन प्रसन्न होती हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य ही हर्षाती हैं।
+
* [[तुम जागौ मेरे लाड़िले, गोकुल -सुखदाई / सूरदास]]
 
+
* [[भोर भयौ जागौ नँद-नंद / सूरदास]]
<Br/>
+
* [[माखन बाल गोपालहि भावै / सूरदास]]
 
+
* [[सो सुख नंद भाग्य तैं पायौ / सूरदास]]
'''भई सहज मत भोरी'''
+
* [[खेलत स्याम ग्वालनि संग / सूरदास]]
 
+
* [[सखा कहत हैं स्याम खिसाने / सूरदास]]
जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।
+
* [[सखा कहत हैं स्याम खिसाने / सूरदास]]
 
+
नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥
+
 
+
हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी।
+
 
+
रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥
+
 
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मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।
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जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥
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लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।
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सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥
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सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खड़ी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढ़कर कन्हैया की बांह पकड़ ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकड़कर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।
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'''अरु हलधर सों भैया'''
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कहन लागे मोहन मैया मैया।
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नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥
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ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।
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दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥
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गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।
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सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥
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सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।
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'''कबहुं बोलत तात'''
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कबहुं बोलत तात
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खीझत जात माखन खात।
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अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥
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कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।
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कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥
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कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
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सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥
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यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे कि रोते-रोते नेत्र लाल हो गए। भौंहें वक्र हो गई और बार-बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पड़ी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकलते थे। घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोड़ने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी-छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।
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'''चोरि माखन खात'''
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चली ब्रज घर घरनि यह बात।
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नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥
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कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
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कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
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कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
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हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥
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कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
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कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥
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सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
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जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥
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भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीला से संबंधित सूरदास जी का यह पद राग कान्हड़ा पर आधारित है। ब्रज के घर-घर में इस बात की चर्चा हो गई कि नंदपुत्र श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं। एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें ऐसी ही चर्चा कर रही थीं। उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पूर्व तो वह मेरे ही घर में आए थे। कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वह भाग गए। एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं। मैं तो उन्हें इतना अधिक और उत्तम माखन दूं जितना वह खा सकें। लेकिन किसी भांति वह मेरे घर तो आएं। तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिखाई पड़ जाएं तो मैं गोद में भर लूं। एक अन्य ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वह मिल जाएं तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु मिलन की जुगत बिठा रही थीं। कुछ ग्वालिनें यह भी विचार कर रही थीं कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएं तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।
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'''गाइ चरावन जैहौं'''
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आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
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बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥
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ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।
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तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥
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प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।
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तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥
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तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।
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सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥
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यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड़ लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा.. और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पड़ता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा।
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यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे।
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'''धेनु चराए आवत'''
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आजु हरि धेनु चराए आवत।
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मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत॥
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जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत।
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आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत॥
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देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग।
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सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग॥
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भगवान् बालकृष्ण जब पहले दिन गाय चराने वन में जाते है, उसका अप्रतिम वर्णन किया है सूरदास जी ने अपने इस पद के माध्यम से। यह पद राग गौरी में बद्ध है। आज प्रथम दिवस श्रीहरि गौओं को चराकर आए हैं। उनके शीश पर मयूरपुच्छ का मुकुट शोभित है, तन पर पीतांबरी धारण किए हैं। गायों को चराते समय जिस प्रकार से अन्य ग्वाल-बाल शब्दोच्चारण करते हैं उनको श्रवण कर श्रीहरि ने हृदयंगम कर लिया है। वन में स्वयं भी वैसे ही शब्दों का उच्चारण कर प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होते हैं। नंद, यशोदा, रोहिणी व ब्रज के अन्य लोग यह सब दूर ही से देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि जब श्यामसुंदर गौओं को चराकर आए तो यशोदा ने उनकी बलैयां लीं।
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'''मुखहिं बजावत बेनु'''
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धनि यह बृंदावन की रेनु।
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नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
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मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
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चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
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इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
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सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
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राग सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्‍‌व प्रतिपादित किया है।
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'''कौन तू गोरी'''
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बूझत स्याम कौन तू गोरी।
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कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
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काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
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सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
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तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
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सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥
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सूरसागर से उद्धृत यह पद राग तोड़ी में बद्ध है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लड़का माखन की चोरी करता फिरता है। तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।
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'''मिटि गई अंतरबाधा'''
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खेलौ जाइ स्याम संग राधा।
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यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥
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जननी निरखि चकित रहि ठाढ़ी दंपति रूप अगाधा॥
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देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥
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संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढ़ी अगाधा॥
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मनहुं तडि़त घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥
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निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥
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सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥
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रास रासेश्वरी राधा और रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुये थे। अपनी रास लीलाओं से ब्रज की भूमि को उन्होंने गौरवान्वित किया। वृषभानु व कीर्ति (राधा के माँ-बाप) ने यह निश्चय किया कि राधा श्याम के संग खेलने जा सकती है। इस बात का राधा को पता लगा तब वह अति प्रसन्न हुई और उसके मन में जो बाधा थी वह समाप्त हो गई। (माता-पिता की स्वीकृति मिलने पर अब कोई रोक-टोक रही ही नहीं, इसी का लाभ उठाते हुए राधा श्यामसुंदर के संग खेलने लगी।) जब राधा-कृष्ण खेल रहे थे तब राधा की माता दूर खड़ी उन दोनों की जोड़ी को, जो अति सुंदर थी, देख रही थीं। दोनों की चेष्टाओं को देखकर कीर्तिदेवी मन ही मन प्रसन्न हो रही थीं। तभी राधा और कृष्ण खेलते-खेलते झगड़ पड़े। उनका झगड़ना भी सौंदर्य की पराकाष्ठा ही थी। ऐसा लगता था मानो दामिनी व मेघ और चंद्र व सूर्य बालरूप में आनंद रस की अभिवृद्धि कर रहे हों। यह देखकर ब्रह्म भी भ्रमित हो गए और मन ही मन विचार करने लगे। सूरदास कहते हैं कि ब्रह्म को यह भ्रम हो गया कि कहीं जगत्पति ने अन्य सृष्टि तो नहीं रच डाली। ऐसा सोचकर उनमें ईष्र्याभाव उत्पन्न हो गया।
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19:13, 25 सितम्बर 2007 का अवतरण

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रचनाकार सूरदास
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भाषा हिन्दी
विषय
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विविध
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।