रोशनी का कारवाँ
रचनाकार | डी. एम. मिश्र |
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प्रकाशक | नमन प्रकाशन, अंसारी रोड दरियागंज नई दिल्ली |
वर्ष | 2012 |
भाषा | हिंदी |
विषय | ग़ज़ल संग्रह |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 112 |
ISBN | 81 8129 354 1 |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
रचनाएँ
- भूमिका / रोशनी का कारवाँ
- देखता हूँ मैं उसी का रूप हर इन्सान में / डी. एम. मिश्र
- ढूँढ रहा खोया अनुराग घर से बाहर तक / डी. एम. मिश्र
- खिली धूप से सीखा मैने खुले गगन में जीना / डी. एम. मिश्र
- इक तरफ़ हो एक नेता इक तरफ़ सौ भेड़िये / डी. एम. मिश्र
- सुनता नही फ़रियाद कोई हुक्मरान तक / डी. एम. मिश्र
- किसी जन्नत से जाकर हुस्न की दौलत उठा लाये / डी. एम. मिश्र
- शौक़िया कुछ लोग चिल्लाने के आदी हो गये / डी. एम. मिश्र
- तू जाने या जाने तेरी क़िस्मत मेरे यार / डी. एम. मिश्र
- गंदगी धेाने में थोड़ा हाथ मैला हो गया / डी. एम. मिश्र
- करो जो जी में आये कौन किसको रोकता है / डी. एम. मिश्र
- अगर जाँ दोस्त ही ले ले तो दुश्मन की ज़रूरत क्या / डी. एम. मिश्र
- रूप बदलकर एक टाँग पर खड़ा मगर है / डी. एम. मिश्र
- दग़ाबाजों से धोखा और खाना क्या ज़रूरी है / डी. एम. मिश्र
- लगा है मेला मगर सब यहाँ अकेले हैं / डी. एम. मिश्र
- बड़े होटल में जाकर चमचमाती शाम लिख लेना / डी. एम. मिश्र
- वो आदमी बेकार है यह बात भी सही / डी. एम. मिश्र
- बजर बजता है तो उसको सुनायी कुछ नहीं देता / डी. एम. मिश्र
- वेा अच्छा आदमी था आ गया बातों में वो कैसे / डी. एम. मिश्र
- देश की धरती उगले सोना वो भी लिखो तरक़्क़ी में / डी. एम. मिश्र
- भाषणों को खा रहे हैं, भाषणों को पी रहे / डी. एम. मिश्र
- रोज़ किसी की शील टूटती पुरूषोत्तम के कमरे में / डी. एम. मिश्र
- भले जलसों में आकर के ज़बानें खूब चलती हैं / डी. एम. मिश्र
- दूर से बातें करो अब वो विधायक है / डी. एम. मिश्र
- भैया जी को देखो कितना हँसकर मिलते हैं / डी. एम. मिश्र
- ज़ुबाँ हो तो वो बोले, बेज़ुबाँ बोले मगर कैसे / डी. एम. मिश्र
- देर से जाना उसे वो आदमी मक्कार है / डी. एम. मिश्र
- बहुत तलाशा मैंने लेकिन मिला न कोई बेईमान / डी. एम. मिश्र
- लौटता है कहाँ नेता चुनाव के बाद / डी. एम. मिश्र
- मापदण्ड सब अलग-अलग हैं दुनिया बड़ी सयानी / डी. एम. मिश्र
- मैं जहाँ जाता हूँ मेरे साथ जाती है ग़रीबी / डी. एम. मिश्र
- दुनिया में अपनी खुश मुझे रहना पसन्द है / डी. एम. मिश्र
- फ़ितरतों से दूर उसकी मुफ़लिसी अच्छी लगी / डी. एम. मिश्र
- दरिया का हुस्न छोटे से क़तरे में देखिये / डी. एम. मिश्र
- है वही दुनिया नये अंदाज़ में दिखने लगी / डी. एम. मिश्र
- अँधेरा जब मुक़द्दर बन के घर में बैठ जाता है / डी. एम. मिश्र
- उलझो तो बस उलझें रहो तमाम ज़िंदगी / डी. एम. मिश्र
- जिंदगी थोड़ी है बंधन बहुत ज्यादा / डी. एम. मिश्र
- ज़िन्दगी प्यार है लेकिन जो आप समझें तो / डी. एम. मिश्र
- जो कट गयी है ज़िंदगी मुड़कर उसे देखा नहीं / डी. एम. मिश्र
- सीपियों के नाम में सारा समंदर लिख गया / डी. एम. मिश्र
- आज मौसम ने शरारत फिर किया / डी. एम. मिश्र
- मासूम गुल ने हँस के देखा तो तमाशा हो गया / डी. एम. मिश्र
- आत्मा नीलाम करके कुछ भी पा लो / डी. एम. मिश्र
- अच्छा हुआ जो रंजो ग़म से दूर हो गया / डी. एम. मिश्र
- अँधेरी सुंरगों में चलना कठिन है / डी. एम. मिश्र
- अपने दरपन से लड़ गया कोई / डी. एम. मिश्र
- हँसो या ना हँसो मातम मुझे अच्छा नहीं लगता / डी. एम. मिश्र
- क्या अच्छा, क्या बुरा सफ़र है चलना है / डी. एम. मिश्र
- उससे बातें करें पर वो ज़िंदा तो हो / डी. एम. मिश्र
- आसमान वो भले नहीं, पर मेरे सर की छतरी है / डी. एम. मिश्र
- नम मिट्टी पत्थर हो जाये ऐसा कभी न हो / डी. एम. मिश्र
- बादलों का एक टुकड़ा आसमाँ में खो गया / डी. एम. मिश्र
- धूल मिट्टी की चमक कागज पे रखकर देखता है / डी. एम. मिश्र
- ख़ैर मनाओ झोपड़ियों में बच्चे ज़्यादा हैं / डी. एम. मिश्र
- बेाझ धान का लेकर वो जब हौले-हौले चलती है / डी. एम. मिश्र
- मुझे तो आजकल अपनी ख़बर नहीं मिलती / डी. एम. मिश्र
- गाँवों का उत्थान देखकर आया हूँ / डी. एम. मिश्र
- इस मिट्टी को छूकर देखो गाँव दिखायी देगा / डी. एम. मिश्र
- गाँव-गाँव हो गया भिखारी / डी. एम. मिश्र
- दूर करो सब गिले व शिकवे अच्छी बात करो / डी. एम. मिश्र
- शाख़ों से जो तोड़ लिया फूलों का मज़ा गया / डी. एम. मिश्र
- वेा हमको अच्छा लगता है हम उस पर प्यार लुटाते हैं / डी. एम. मिश्र
- हुस्न है तो अदा कहाँ जाये / डी. एम. मिश्र
- मेरे साथ मेरे गुनाह थे और वो सितारों की रात थी / डी. एम. मिश्र
- बुझे न प्यास तो फिर सामने नदी क्यों है / डी. एम. मिश्र
- हमने दिल जो दिया तो दिया कोई क़ीमत नहीं माँगते / डी. एम. मिश्र
- थोड़ा-सा मुस्काने में क्यों इतनी देर लगा दी / डी. एम. मिश्र
- हाले दिल क्या सुनाऊँ तुझे वक़्त गुज़रा नहीं भूलता / डी. एम. मिश्र
- ज़िंदगी के सभी ग़म भुला दीजिए / डी. एम. मिश्र
- मुझे साथ अपने जो ले चले मुझे उस जहाँ की तलाश है / डी. एम. मिश्र
- ज़रा-सा मुस्कराये मुड़ गये इन्कार अच्छा है / डी. एम. मिश्र
- दुश्मने जाँ सामने हो तो ख़ता अच्छी लगे / डी. एम. मिश्र
- दूर से आकर हमारा वो क़रीबी हो गया / डी. एम. मिश्र
- दरपन ने जो चोट सही वो पत्थर क्या जाने / डी. एम. मिश्र
- अगर उदास है वो तो कोई मजबूरी है / डी. एम. मिश्र
- और आगे क्या किया जाये बताओ रास्ता / डी. एम. मिश्र
- जा तुझे भी मिले खुशी कोई / डी. एम. मिश्र
- हम ख़ादिमे गुलशन जब ठहरे हमें फ़िक्रे गुलिस्ताँ क्या करना / डी. एम. मिश्र
- गुज़र जाते हैं जो लम्हे वो केवल याद आते हैं / डी. एम. मिश्र
- ग़ज़ल बड़ी कहो मगर सरल ज़बान रहे / डी. एम. मिश्र
- बड़े होकर वो बच्चे ज़िंदगी भर लड़खड़ाते हैं / डी. एम. मिश्र
- भावुकता के बिना शून्य जीवन लगता / डी. एम. मिश्र
- ना अम्मा, ना बाबू, ना बचपन की खुशी हमारे पास / डी. एम. मिश्र
- जाड़े की सुबहें थीं, घूप के गलीचे थे / डी. एम. मिश्र
- बहुत दिनों के बाद खिले दो फूल हमारे आँगन में / डी. एम. मिश्र
- छोटा-सा नन्हा-सा बच्चा हाथ बढ़ाये छू ले चाँद / डी. एम. मिश्र
- माँ हुई खुश तो मेरी तारीफ करने लग गयी / डी. एम. मिश्र
- वही गगन भी छूता है जिसका ज़मीन से नाता है / डी. एम. मिश्र
- हमें बेटा नहीं बनिये की पूँजी मानता है वो / डी. एम. मिश्र
- फ़ज़ा वो भी समझता है, फ़ज़ा हम भी समझते हैं / डी. एम. मिश्र
- बहुत सुना था नाम मगर वो जन्नत जाने कहाँ गयी / डी. एम. मिश्र
- केवल अपनी नहीं जगेसर सब की चिंता करता है / डी. एम. मिश्र
- अब तो किसी भी बात पर चौंकता कोई नहीं / डी. एम. मिश्र
- नदी की धार मोड़ दो तो कोई बात बने / डी. एम. मिश्र
- कुछ मेरा दीवानापन था, कुछ नसीब का चक्कर था / डी. एम. मिश्र
- इन गलियों में चले चलो, बस कुछ मत सोचो / डी. एम. मिश्र
- बाग़ वही, बुलबुल भी वही मगर फ़साना बदल गया / डी. एम. मिश्र
- उधर हैं आधियाँ इधर चिराग़ जलता है / डी. एम. मिश्र
- गुलाबों की नई क़िस्मों से वो खु़शबू नहीं आती / डी. एम. मिश्र
- उड़ गये रंग हुए श्वेत हम / डी. एम. मिश्र
- उधर देखा, कभी खु़द की तरफ़ देखा नहीं मैंने / डी. एम. मिश्र
- दबे पाँवों से चलकर वक़्त हर लम्हा गुज़रता था / डी. एम. मिश्र
- तमाशाई बने रहना मुझे अच्छा नहीं लगता / डी. एम. मिश्र
- समन्दर की लहर पहचानता हूँ क्या करूँ लेकिन / डी. एम. मिश्र