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आँखें खोलो / विजय किशोर मानव
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आँखें खोलो
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रचनाकार | विजय किशोर मानव |
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प्रकाशक | किताबघर प्रकाशन, 4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002 |
वर्ष | 2005 |
भाषा | |
विषय | |
विधा | ग़ज़ल |
पृष्ठ | 87 |
ISBN | 81-7016-731-0 |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
इस पुस्तक में संकलित रचनाएँ
- बगुले चलें यहाँ हंसों की चाल, सुना तुमने / विजय किशोर मानव
- गरदनें ख़िदमत में हाज़िर हैं हमारी, लीजिए / विजय किशोर मानव
- यही वो पाँव हैं जो आँख खुलते ही निकलते हैं / विजय किशोर मानव
- आंधी में भी जिए हैं हमारे शहर में लोग / विजय किशोर मानव
- बहुत उदास वज़ीरों में एक मैं भी हूँ / विजय किशोर मानव
- एक ओर माँ लेटी एक ओर बाबू जी / विजय किशोर मानव
- बौने हुए विराट हमारे गाँव में / विजय किशोर मानव
- आना देखा, जाना देखा / विजय किशोर मानव
- इतने फंदों में झूलकर भी प्रान हैं बाक़ी / विजय किशोर मानव
- अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए / विजय किशोर मानव
- परनाले की ईंट लगी छत पर देखो / विजय किशोर मानव
- मेरी आँखों में झांककर देखें / विजय किशोर मानव
- थोड़ा-सा पानी है वह भी सुर्ख़ लाल है / विजय किशोर मानव
- अश्क आँखों में रोककर मैंने / विजय किशोर मानव
- कहाँ हुए नहीं ग़दर किसी से पूछो तो / विजय किशोर मानव
- सारी उम्र नदी के कटते हुए किनारे देखे हैं / विजय किशोर मानव
- चेहरे शाह शरीर ग़ुलामों के / विजय किशोर मानव
- बाग़ी सारे सवाल कैसे दिन हैं / विजय किशोर मानव
- आँख खुली घेरती सलाखें हमको मिलीं / विजय किशोर मानव
- ग़ुम लिफ़ाफ़ों की तरह शहर-दर-शहर फिरना / विजय किशोर मानव
- लाख बहाने हैं जीने के, लाख बहाने मरने के / विजय किशोर मानव
- फ़्रेमों में जड़ी हँसी / विजय किशोर मानव
- जानते हैं हम कहाँ जाती है धूप / विजय किशोर मानव
- चील के पाँव से बंधी चिड़िया / विजय किशोर मानव
- कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में / विजय किशोर मानव
- आधी रोटी एक कहानी / विजय किशोर मानव
- लोग करें कैसी मनमानी / विजय किशोर मानव
- मारे हुए हैं आदमी यहाँ / विजय किशोर मानव
- कैसे साँचों में ढल रहे हैं दिए / विजय किशोर मानव
- चार-छह लोगों के कंधों पर चढ़े हैं / विजय किशोर मानव
- भीड़ों में अकेले हैं हम किस शहर में हैं / विजय किशोर मानव
- अख़बारों के कवर किताबों पर / विजय किशोर मानव
- चीख़ उठता है शहर रात गए / विजय किशोर मानव
- कैसे-कैसे शोर सुना करते हैं हम / विजय किशोर मानव
- मौत रह-रह के छले है यारों / विजय किशोर मानव
- सबको उड़ना कहाँ मयस्सर है / विजय किशोर मानव
- बड़े हुए भ्रम से लड़ते हुए / विजय किशोर मानव
- शोर होता है साज़ पर तनहा / विजय किशोर मानव
- दूर तक दिखते वही दागे़ हुए चेहरे / विजय किशोर मानव
- नींद आई तो ख़्वाब देखेंगे / विजय किशोर मानव
- धुएँ में घुटता है दम किससे कहें / विजय किशोर मानव
- झूठा चांद, सितारे झूठे / विजय किशोर मानव
- रोशनी के सताए हुए हैं / विजय किशोर मानव
- सुलग के दिल में बुझे जाते हैं / विजय किशोर मानव
- खंडहर भी नहीं हमारा शहर / विजय किशोर मानव
- कौन आता है, फ़र्क़ कुछ भी नहीं / विजय किशोर मानव
- भटक रहे हैं दिल को आईना बनाए हुए / विजय किशोर मानव
- जड़ से उखड़ी हुई ये बस्तियाँ यायावर थीं / विजय किशोर मानव
- कुछ शहद में दिया जा रहा है / विजय किशोर मानव
- हमको ख़ामोश बनाए रखिए / विजय किशोर मानव
- थक के चूर हो गए आईने / विजय किशोर मानव
- लाख हैं पाँव फंसे जालों में / विजय किशोर मानव
- उजड़ा शहर हमारा ऐसे / विजय किशोर मानव
- थोड़ा जीना हुआ, थोड़ा मरना हुआ / विजय किशोर मानव
- कब से ये शोर है शहर भर में / विजय किशोर मानव
- मुँह उनके ख़ून से सने रहना / विजय किशोर मानव
- अकड़ गई गरदन सर्दी से, कहने को है ऊँचा सर / विजय किशोर मानव
- आ के वो सर झुका गए यूँ ही / विजय किशोर मानव
- शहर जले चीख़े आबादी / विजय किशोर मानव
- नदिया, पोखर, ताल हाल के दंगे में / विजय किशोर मानव
- हर तमाशा अजीब ही है / विजय किशोर मानव
- दोपहर है बहुत घाम है / विजय किशोर मानव
- आँख मे ख़्वाबघर है, और कुछ नहीं दिखता / विजय किशोर मानव
- आईना फ़र्श पर गिरने को है / विजय किशोर मानव
- रोज़ बढ़ती जा रही है भूख राजा की / विजय किशोर मानव
- किस तरह चीख़ते रहे होंगे / विजय किशोर मानव